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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra _४२२ www.kobatirth.org न्याय कन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ गुणे संशय न्यायकन्दली चेति, तत् तथैव तदा संवृत्तम् । अन्यदादिष्टं तद्वितथमभूत् । पुनरिदानीं तस्योत्पन्नं तथाभूतमेव निमित्तं दृष्ट्वादिशतोऽन्तः स्वज्ञाने संशयो भवति यदेतन्मम नैमित्तिकं ज्ञानमभूत् तत् सत्यमसत्यं वेति । बहिद्विविधः - प्रत्यक्षविषये अप्रत्यक्षविषये च । तत्र तयोर्मध्येऽप्रत्यक्षतावत् साधारणलिङ्गदर्शनादुभयविशेषानुस्मरणादधर्माच्च संशयो विषये भवति । यथाscort विषाणमात्रदर्शनाद गौर्गवयो वेति । वाटान्तरितस्य पिण्डस्याप्रत्यक्षस्य सामान्येन विषाण मात्रदर्शनानुमितस्य संशयविषयत्वादप्रत्यक्षविषयोऽयं संशयः । प्रत्यक्षविषयेऽपि कथयति - स्थाणुपुरुषयोरित्यादिना । स्थाणुपुरुषयोः सम्बन्धिनी योर्ध्वता तन्मात्रस्य प्रत्यक्षविषये पुरोवर्तिनि धर्माणि दर्शनात् । वक्रादिविशेषानुपलब्धित इत्यादिपदेन शिरः पाण्यादिपरिग्रहः । वक्रकोटरादेः For Private And Personal कुछ इष्ट या अनिष्ट था, या है. अथवा होगा और वे उस प्रकार सङ्घटित भी हुए । फिर उसी प्रकार का निमित्त उपस्थित होते देखकर उस आदेशिक पुरुष को अपने ज्ञान में यह संशय होता है कि मेरा दह नैमित्तिक ज्ञान सत्य था या मिथ्या ? अधर्म से जङ्गल इस आकार का विषयक इसलिए है कि अप्रत्यक्ष पिण्ड ( गो और (१) प्रत्यक्ष के द्वारा जानने योग्य विषयों का और ( २ ) अप्रत्यक्ष विषयों का बाह्य संशय के ये दो भेद हैं । ( गो और गवय ) दोनों में साधारण रूप से रहनेवाले धर्मों के ज्ञान से एवं पोछे दोनों के असाधारण धर्मो के स्मरण और में केवल सींग देखने से जो पुरुष को 'यह गो है अथवा गवय' संशय होता है वह 'अप्रत्यक्ष विषयक संशय' है । यह अप्रत्यक्ष विषाणरूप साधारण हेतु से अनुमित एवं रास्ते में छिपा हुआ गवय ) उसका विषय है । 'स्थाणुपुरुषयोः' इत्यादि ग्रन्थ से उस संशय का निरूपण किया है जिसका विषय प्रत्यक्ष के द्वारा जाना जाता है स्थाणु और पुरुष दोनों में समान रूप से रहनेवाली जो ऊँचाई ( ऊर्ध्वता ) है, आगे स्थित एवं प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत धर्मी में उसके प्रत्यक्ष से 'स्थाणुर्वा पुरुषः' यह संशय उत्पन्न होता है । एवं 'वक्रादिविशेषानुपलब्धित:' इस वाक्य में 'आदि' पद से ( पुरुष में रहनेवाले ) शिर एवं हाथ पैर प्रभृति धर्मों का ग्रहण समझना चाहिए। अर्थात् बक्रता और कोटर प्रभृति स्थाणु के विशेष धर्मों की अनुपलब्धि तथा शिर एवं पैर प्रभृति पुरुष के विशेष धर्मों की अनुपलब्धि से प्रकृत में प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषयों का संशय होता है । 'स्थाणुत्वादिसामान्य विशेषानभिव्यक्तो' इस वाक्य में प्रयुक्त 'आदि' पद से 'पुरुषत्वादि' धर्मों का संग्रह अभीष्ट है । वक्रता और अभिव्यक्ति के कारण हैं । शिर और पैर प्रभृति धर्म हैं । इन ( स्थाणुत्व और पुरुषत्व के अभिव्यञ्जक ) धर्मों की अनुपलब्धि के कारण कोटर प्रभृति धर्म स्थाणुत्व की पुरुषत्व की अभिव्यक्ति के कारण
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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