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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४१५ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली यत्येदमेवेदमिति । अनुजानात्ययमेकतरधर्मं न त्ववधारयति । न चायं संशयोऽपि, उभयकोटिसंस्पर्शाभावात् । किन्तु संशयात् प्रच्युतो निर्णयं चाप्राप्तः सम्भावनाप्रत्ययोsन्य एव । तथा च लोके वक्तारो भवन्ति - एवमहं तर्कयामीति । न, योग्यतावधारणाद् यत्र विपक्षाभावस्तत्रान्यतरपक्षोपपत्तिः, यत्र तु तस्य सम्भवस्तत्रानुपपत्तिरित्यन्वयव्यतिरेकदर्शी विपक्षाभावं प्रतिपद्यमानः सभ्भावयत्ययमनुत्पत्तिधर्मको भविष्यतीत्यस्मिन्नर्थे प्रमाणमेतत्प्रतिपादनाय योग्योऽयमर्थ इति प्रमाणयोग्यतां विषयस्याध्यवस्यतीति अनुमानमेव । इत्थमेव च प्रमाणमनुगृह्णाति योग्यताप्रतीतेः प्रमाणप्रवृत्तिहेतुत्वात् । अन्यथा पुनरिदं सम्भावनामात्रमनर्थकमेव स्वयमप्रमाणस्य सिद्धयुपलम्भयोरनङ्गत्वाद् विषयविवेकस्यापि विपक्षाभावं प्रतिपादयता बाधकप्रमाणेनैव कृतत्वात् । है । ( प्र०) विपक्ष के अभाव की प्रतीति से अपने पक्ष की सम्भावना उत्पन्न होती है, इस प्रकार विपक्षाभाव की प्रतीति स्वपक्षसम्भावना का कारण है । ( उ० ) तो फिर स्वपक्ष की सम्भावना परपक्षाभावहेतुक अनुमान ही है, क्योंकि परस्पर विरुद्ध दो पक्षों में से एक का प्रतिषेध तबतक नहीं किया जा सकता जबतक दूसरे की विधि न हो ( प्र ० ) किन्तु इस प्रकार की प्रतीतियाँ भी तो होती हैं कि 'यह इसी प्रकार है' या 'इन दोनों में से एक को जानते तो हैं, किन्तु निश्चय नहीं कर सकते' । यह दूसरा ज्ञान संशय रूप नहीं है, क्योंकि इसमें दो कोटि विषय नहीं है । किन्तु संशय से आगे बढ़ा हुआ, एवं निश्चय स्वरूप को अप्राप्त यह सम्भावनाप्रत्यय, प्रत्यक्ष संशय और निश्चय से भिन्न एक अलग ही ज्ञान है । साधारण जन भी ऐसा कहते हैं कि 'मैं ऐसा तर्क करता हूँ' ! ( उ० ) उक्त कथन ठीक नहीं है । क्योंकि योग्यता निश्चित रहने के कारण जहाँ कोई विपक्ष नहीं रहता है, वहाँ दो में से एक पक्ष की उपपत्ति ही होती है, जहाँ योग्यता की सम्भावना भर होती है, वहाँ एक पक्ष की अनुपपत्ति होती है । इस अन्वय और व्यतिरेक का ज्ञान जिस पुरुष को है, वह विपक्ष के अभाव को समझता हुआ यह सम्भावना करता है कि आत्मा अनुत्पत्तिधर्मक ही होगी, इस विषय को समझाने के लिए (उक्त सम्भावना प्रत्यय का विषय ) आत्मा का यह अनुत्पत्तिधर्मकत्व सर्वथा उपयुक्त है । एवं इस अर्थ को समझाने के लिए उक्त विगय सर्वथा उपयुक्त है । इस प्रकार आत्मा के अनुत्पत्तिधर्मकत्व के विषय में प्रमाण से उत्पन्न होती है । अतः यह अनुमान ही है । उक्त रीति से ही भी होता है । प्रमाण में विषय को उचित रूप में समझाने की योग्यता की प्रतीति तर्क से ही होती है, यह योग्यता की प्रतीति ही प्रमाण की प्रवृत्ति का कारण है । यदि ऐसी बात न हो तो फिर यह सम्भावनाप्रत्ययरूप तर्क व्यर्थ ही होगा, अप्रमाण है, वह न किसी के स्थापन में न किसी के खण्डन में ही सहायक हो सकता है । विषय के विवेक का ज्ञान तो विपक्षाभाव के प्रतिपादक बाधक प्रमाण से ही हो जाएगा ! होने की योग्यता निश्चित तर्क प्रमाण का सहायक क्योंकि तर्क स्वयं For Private And Personal [ गुणे बुद्धि
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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