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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम ३६५ प्रशस्तपादभाष्यम् भावे सत्येकस्य द्रष्टुः सन्निकष्टमवधिं कृत्वा एतस्माद् विप्रकृष्टोऽयमिति परत्वाधारेऽसनिकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते । ततस्तामपेक्ष्य परेण के रहने पर देखने वाले एक पुरुष के समीप ( प्रदेश ) को अवधि मानकर इससे यह दूर है' इस प्रकार की दूरत्वविषयक बुद्धि परत्व के आधारद्रव्य में उत्पन्न होती है। इसके बाद इसी बुद्धि के सहयोग से दूर दिशा के न्यायकन्दली कालसन्निकृष्टत्वमिति विशेषः। तत्र तयोदिक्कृतकालकृतयोर्मध्ये दिक्कृत. स्योत्पत्तिरभिधीयते। कथमिति प्रश्ने सत्युत्तरमाह-एकस्यामिति । पूर्वापरदिग्व्यवस्थितयोः पिण्डयोः परापरप्रत्ययौ न सम्भवतः, तदर्थमेकस्यां दिश्यवस्थितयोरित्युक्तम् । एकस्यां दिशि प्राच्यां वा प्रतीच्या वाडवस्थितयोः पिण्डयोर्मध्ये एकस्य द्रष्टुः संयुक्तेन भूदेशेन सहापरस्य प्रदेशस्य संयोगः, तेनापि सममपरस्येति संयुक्तसंयोगानां बहुत्वे सत्यल्पसंयोगवन्तं पिण्डं सन्निकृष्टमवधि कृत्वैतस्मात् पिण्डाद् प्रिकृष्टोऽयमिति संयोगभूयस्त्ववति भविष्यतः परत्वस्याधारे पिण्डे विप्रकृष्टा बुद्धिरुदेति । ततो प्रतिपादन करता है 'कालकृत अपरत्व' काल के संनिकृस्टत्व का, अर्थात् कनिष्ठत्व का ज्ञापक है। यही इनमें विशेष है । 'तत्र' अर्थात् दिक्कृत परत्वापरत्व और कालकृत परत्वापरत्व इन दोनों में दिक्कृत परत्वापरत्व का निरूपण करते हैं। (इसी प्रसङ्ग में) 'कथम्' इस वाक्य से प्रश्न किये जाने पर 'एकस्याम्' इत्यादि वाक्य के द्वारा उत्तर देते हैं । पूर्व और पश्चिमादि विरुद्ध दिशाओं में स्थित दो पिण्डों में परत्व और अपरत्व की प्रतीति नही हो सकती, अतः 'एकस्यां दिश्यवस्थितयोः यह वाक्य लिखा गया है। 'एक ही' अर्थात् पूर्व या पश्चिमादि किसी एक दिशा में अवस्थित दो पिण्डों में से किसी एक पिण्ड और देखनेवाले पुरुष, इन दोनों से संयुक्त भूप्रदेश के साथ दूसरे भूप्रदेश का संयोग है, उसके साथ फिर तीसरे भूप्रदेश का संयोग है, इस प्रकार संयुक्त प्रदेशों के बहुत से संयोगों के रहने पर, संयुक्त प्रदेशों के संयोगों की अधिकता के कारण, उन भप्रदेशों के संयोगों से अल्प संयोग से युक्त अत एव समीपस्थ पिण्ड को अवधि मानकर उत्पन्न होनेवाले परत्व के आधारभूत एवं उक्त बहुत से संयोगों से युक्त पिण्ड में 'इससे यह दूर है' इस प्रकार की विप्रकृष्टा बुद्धि अर्थात् दूरत्व की बुद्धि उत्पन्न होती है । 'तत:' अर्थात् लस दूरत्व की बुद्धि के बाद उसी विप्रकृष्ट द्रव्य को For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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