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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् तन्त्वंश्वन्तर विभागाद विभाग इत्यदोषः । आश्रयविनाशात तन्त्वोरेव विभागो विनष्टो न तन्त्वंश्वन्तरविभाग इति । एतस्मादुत्तरो विभागो जायते, अगुल्याकाशविभागाच्छरीराकाशविभागवत् तस्मिन्नेव काले कर्म संयोगं कृत्वा विनश्यतीत्यदोषः । ( उ० Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ↑ ) ( आश्रय के विनाश से विभागनाश के प्रसङ्ग में जो उत्तरविभाग की अनुत्पत्ति का अतिप्रसङ्ग दिया गया है, उसका यह समाधान है कि उत्तर विभाग आकाशादि देशों के साथ तन्तु के ( विभागज) विभाग, एवं तन्तु और तन्तु के अनारम्भक दूसरे अंशु, इन दोनों के विभाग से उत्पन्न होता है, ( अत: प्रकृत में उक्त विभागानुत्पत्ति रूप ) दोष नहीं है, क्योंकि आश्रय के विनाश से दोनों तन्तुओं का विभाग ही नष्ट होता है, इससे तन्तु और ( उसके अनुत्पादक ) दूसरे तन्तु, इन दोनों के विभाग का नाश नहीं होता। इसी विभाग से आकाशादि देशों के साथ तन्तु के इस उत्तर विभाग की उत्पत्ति होती है जैसे कि अङ्गुलि और आकाश के विभाग से शरीर और आकाश के विभाग की उत्पत्ति होती है । उसी समय क्रिया उत्तर (देश) संयोग को उत्पन्न कर स्वयं भी विनष्ट हो जाती है । इस प्रकार अनित्य द्रव्यों की क्रिया में चिरस्थायित्व और परमाणुओं में रहनेवाली क्रियाओं में नित्यत्व रूप दोनों दोषों का निराकरण हो जाता है । ३८६ For Private And Personal न्यायकन्दली तन्तौ कर्मोत्पन्नं तन्त्वन्तराद् विभाग समकालं तदंशुनापि तन्तुसंयुक्तेन समं विभागमारभते । स च विभागस्तन्तोरंशोश्चावस्थानादवस्थित इत्याह-आश्रयविनाशात् तन्त्वोरेव विभागो विनष्टः, तन्त्वंश्वन्तरविभागस्त्ववस्थित इति । अङ्गुल्याकाश किमतो यद्येवमित्यत आह- एतस्मादिति । विभागाच्छरीराकाशविभागवत् । यथा कर्मजादगुल्या काशविभागाच्छरीरादूसरे तन्तु साथ विभाग की उत्पत्ति के समय ही तन्तु के साथ संयुक्त अंशु के साथ भी विभाग को उत्पन्न करती है । वह विभाग ( अपने आश्रय ) तन्तु और अंशु के विद्यमान रहने के कारण रहता ही है । यही बात आश्रयविनाशात्तन्त्वोरेव विभागो विनष्ट:' इत्यादि सन्दर्भ से कहा गया है । अर्थात् आश्रय के विनाश से दोनों तन्तुओं के विभाग का ही विनाश होता है, तन्तु और दूसरे अंशु का विभाग तो रहता ही है । अगर ऐसी बात है तो इससे प्रकृत में क्या इसी प्रश्न का समाधान 'एतस्मात् इत्यादि से दिया गया है । 'अङ्गुल्या काशविभागाच्छरीराकाशविभागवत्' इस उदाहरण वाक्य का यह तात्पर्य है कि जैसे अंगुलि और आकाश के विभाग से शरीर और
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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