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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् इति । एवं तद्युत्तरविभागानुत्पत्तिप्रसङ्गा, कारणविभागाभावात् । ततः प्रदेशान्तरसंयोगवति संयोगाभाव इत्यतो विरोधिगुणासम्भवात् , रहनेवाले दूसरे तन्तु के विभाग का विनाश होता है। इस प्रकार यहाँ आश्रय के विनाश से ही विभाग का विनाश होता है, उत्तर देश के संयोग से नहीं। (प्र०) अगर उक्त स्थल में उक्त प्रकार से आश्रय नाश के द्वारा ही विभाग का नाश मानें, तो फिर तन्तु का आकाशादि देशों के साथ जो (विभागज) विभाग उत्पन्न होता है, वह न हो सकेगा, क्योंकि इस न्यायकन्दली ततो यस्मिन काले विभागात् तन्त्वोः संयोगविनाशः, तस्मिन्नेव कालेश्वोः संयोगविनाशात् तदारब्धस्य तन्तोविनाशः, तस्मिस्तन्तौ विनष्टे तदाश्रितस्य तन्त्वन्तरविभागस्य विनाशः, तदाऽश्रयविनाशः, कारणमन्यस्य विनाशहेतोरभावात् । अत्र पुनः प्रत्यवतिष्ठते-एवं तीति। द्वितन्तुकविनाशसमकालमेव तन्तुविभागस्य विनाशः। उत्तरो विभागः सक्रियस्य तन्तोराकाशादिवेशेन समं विभागजविभागेनोत्पद्यते, कारणस्य तन्त्वोविभागस्याभावात् । यद्युत्तरो विभागो न संवृत्तः, ततः किं तत्राहतत इति। तत उत्तरविभागानुत्पादात् प्राक्तनस्य तन्त्वाकाशसंयोगस्य उत्पन्न होती है। जिस समय विभाग के द्वारा तन्तु के उत्पादक (दोनों अंशुओं के) संयोग का विनाश होता है, उसी समय एक तन्तु की क्रिया से उसका दूसरे तन्तु से विभाग भी उत्पन्न होता है। इतने काम एक समय में होते हैं। इसके बाद जिस समय विभाग से दोनों तन्तुओं के संयोग का नाश होता है, उसी समय विभागजनित दोनों अंशुओं के संयोग के नाश के द्वारा उन दोनों अंशुओं से उत्पन्न तन्तु का भी विनाश होता है । इस लिए (इस विभाग के विनाश का) आश्रयविनाश ही कारण है, क्योंकि किसी दूसरे कारण से उसके विनष्ट होने की सम्भावना नहीं है । एवं तहि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इस प्रसङ्ग में फिर आक्षेप करते हैं। अगर दो तन्तुओं से निष्पन्न पट के विनाश के समय में ही तन्तुविभाग का भी विनाश हो जाता है, तो फिर उत्तरविभाग की अर्थात् क्रिया से युक्त तन्तु का आकाशादि देशों के साथ विभागजविभाग की उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि (इस विभागज विभाग के कारण अर्थात् दोनों तन्तुओं का विभाग वहाँ नहीं है। (प्र०) अगर 'उत्तरविभाग' (अर्थात् उक्त विभागज विभाग) की उत्पत्ति न हो सकेगी तो क्या हानि होगी? इसी प्रश्न के समाधान के लिए 'ततः' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है। 'ततः' अर्थात् उत्तर विभाग की उत्पत्ति न होने के कारण, तन्तु ४१ For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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