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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३७२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विभाग प्रशस्तपादभाष्यम् अकृतसंयोगस्य कर्मणः कालात्ययाभावादिति । कारणाकारणविभागादपि कथम् ? यदा हस्ते कर्मोत्पन्न - संयोग को उत्पन्न करनेवाली क्रिया का काल तब तक नहीं बीता रहता है, जब तक कि वह संयोग को उत्पन्न न कर दे। (प्र० ) कारण और अकारण के विभाग से (कारणाकारण विभागजनित ) विभाग की उत्पत्ति कैसे होती है ? ( उ० ) जिस समय हाथ में उत्पन्न न्यायकन्दली स्थितस्य द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तेरसम्भवात् । तस्य च संयोगारम्भकालस्यात्ययोऽतिक्रमोन भूतः, तदानी हि कालोऽयमतिकान्तः स्याद् यदि कर्मणा प्रदेशान्तरसंयोगः कृतो भवेन्न त्वेवम् ; तस्मादकृतसंयोगस्य कर्मणो यः संयोगारम्भकालस्तस्यात्ययाभावात् कर्म संयोगं करोति, न विभागम् । तेन चेदयं न कृतोऽन्यस्यासम्भवादसमवायिकारणेन विना च वस्तुनोऽनुत्पादादेकार्थसमवेतो विभागोऽस्य कारणमित्यवतिष्ठते । इतिशब्दः प्रक्रमसमाप्तौ। एवं कारणविभागपूर्वकं विभागं प्रतीत्य कारणाकारणविभागपूर्वक विभागं प्रत्येतुमिच्छन् पृच्छति—कारणाकारण विभागादपि कथमिति । उपयुक्त समय है, एक देश में रहते हुए द्रव्य का दूसरे देश के साथ संयोग सम्भव नहीं है। ( अतः ) इस ( उत्तर ) संयोगोत्पादन के समय का 'अत्यय' अर्थात् अतिक्रम नहीं हआ है। इस संयोग के काल का अतिक्रमण तब होता, जब कि उस क्रिया से उत्तर देश संयोग का उत्पादन हो गया होता। किन्तु सो नहीं हुआ है. अतः जिस क्रिया ने जिस संयोग को जब तक उत्पन्न नहीं किया है, तब तक उस क्रिया से उस संयोग के उत्पादन का काल नहीं बोता है। अत: क्रिया उत्तरदेश संयोग को उत्पन्न करने पर भी ( विभागज ) विभाग को उत्पन्न नहीं करती है। दोनों अवयवों के विभाग से अगर ( विभागज ) विभाग की उत्पत्ति न मानें, तो फिर उस ( विभागज ) विभाग का कोई दूसरा असमवायिकारण नहीं हो सकता। असमवायिकारण के न रहने पर ( समवेत ) कार्य की उत्पत्ति ही नहीं होती है। इससे सिद्ध होता है कि विभागजविभाग के आश्रयीभूत एक द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला ( दोनों अवयवों का ) विभाग ही उस ( पूर्व देश के साथ अवयवों के) विभाग का : असमवायि) कारण है। 'इति' शब्द प्रसङ्ग की समाप्ति का बोधक है। इस प्रकार कारण ( मात्र) के विभाग से उत्पन्न विभाग ( विभागजविभाग) को समझा कर कारण और अकारण के विभाग से उत्पन्न होने वाले (विभागज ) विभाग को समझाने के अभिप्राय से 'कारणाकारण विभागादपि कथम् ?' इस वाक्य के For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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