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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ३४६ न्यायकन्दली कियावता श्येनेन सह संयोगः श्येनकर्मजः। एवमाकाशादीनां विभूनां निष्क्रियाणां क्रियावद्भिर्मूर्तेरसर्वगतद्रव्यपरिमाणः मूर्तद्रव्यकर्मजः । नन्वेकस्य मन्दं गच्छतोऽपरेण तत्पृष्ठमनुधावतान्यतरकर्मजः संयोगो दृष्टः कथमुक्त क्रियावता निष्क्रियस्येति ? सत्यम् । निष्क्रियत्ववाचोयुक्तिस्तु विवक्षितसंयोगहेतुभूतकर्माभिप्रायेणेति मन्तव्यम्। प्रथमं श्येनचरणस्थाणुशिरसोः संयोगः, तदनु स्थाणुश्येनावयविनो: । तत्रावयवयोः संयोगः कर्मजः, अवयविनोस्तु संयोगजः संयोग इति केचित् । तदप्यसारम्, सक्रियस्याप्यवयविनः क्रियावत एवावयव्यन्तरेण संयोगात् । यदि चैवं नेष्यते, अवयवानामपि स्वावयवापेक्षयावयवित्वेन सर्वत्रावयविषु कर्मजस्य संयोगस्योच्छेदः स्यादिति । तथा सति चावयविनि कर्माभावो कर्मज संयोग का ही उदाहरण कहा गया है, अर्थात् जैसे कि स्थाणु' अर्थात् सूखे हुए वृक्ष और श्येन (बाज) पक्षी इन दोनों का संयोग केवल बाज पक्षी की क्रिया से उत्पन्न होने के कारण 'अन्यतरकर्मज' संयोग है उसी प्रकार विभु अर्थात् क्रिया से रहित आकाशादि द्रव्यों का मूर्त द्रव्यों के साथ अर्थात् क्रिया से युक्त द्रव्यों के साथ जितने भी संयोग उत्पन्न होते हैं, वे सभी मूर्त द्रव्य रूप केवल एक द्रव्य की क्रिया से ही उत्पन्न होने के कारण 'अन्यतरकर्मज' ही हैं। ( प्र०) एक आदमी अगर मन्दगति से जा रहा है, दूसरा तीव्र गति से चलकर उससे टकरा जाता है, इन दोनों आदमियों का संयोग भी तो अन्यतरकर्मज ही है, फिर क्रिया से युक्त एक द्रव्य का क्रिया से शून्य दूसरे द्रव्य के साथ होनेवाले संयोग को ही अन्यतरकर्मज कैसे कहते हैं ? ( उ० ) यह ठीक है (कि अन्यतरकर्मज सभी संयोगों का एक सम्बन्धी नियमतः निष्क्रिय नहीं होता ) फिर भी अन्यतरकर्मज संयोग के प्रकृतलक्षण में निष्क्रियत्व' का उपादान अन्यतरकर्मज संयोग के कहे हुए दोनों उदाहरणों को ही दृष्टि में रखकर किया गया है, ( क्योंकि स्थाणु और श्येन का संयोग एवं विभु द्रव्यों का मूर्त द्रव्यों के साथ संयोग इन दोनों उदाहृत संयोगों का एक सम्बन्धी अवश्य ही निष्क्रिय हैं)।। कोई कहते हैं कि (प्र०) पहिले श्येन के पैर और स्थाणु के आगे का भाग इन दोनों अवयवों में संयोग उत्पन्न होता है। इसके बाद श्येन रूप अवयवी और स्थाणु रूप अवयवी इन दोनों अववियों में दूसरा संयोग उत्पन्न होता है। इन दोनों में से पहिला संयोग ही कर्मज है और दूसरा संयोग संयोगज है। ( उ०) किन्तु इस कथन में कुछ सार नहीं है, क्योंकि संयोग के क्रियाशील सम्बन्धी एक अवयवी में क्रिया के रहने से ही दूसरे (निष्क्रय या सक्रिय ) अवयवी के साथ संयोग हो जाता है। अगर ऐसा न मानें तो वे ( श्येन के पैर या स्थाणु के अग्रभागादि) अवयव भी तो अपने-अपने अवयवों की अपेक्षा अवयवी हैं ही। इस प्रकार सभी अवयवियों से कर्मज For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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