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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३४५ प्रकरणम्] प्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली समवाय्यसमवायिकारणयोरन्यतरविनाशाद्विनश्येत् ? अथ गुणानतिरेकिणी ? तदाश्रयविनाशाद्विरोधिगुणप्रादुर्भावाद्वा विनश्येदिति, समवायस्यानभ्युपगमात् । यस्य यतो विनाशं प्रतीमस्तस्य तमेव विनाशहेतु ब्रूमो न पुनरमुत्वत्कृतं समयमभ्युपगच्छामः, प्रतीतिपराहतत्वात् । यदि चावश्यमभ्युपेयस्तदा द्रव्यगुणयोरेव विनाशं प्रत्यभ्युपगम्यतां यत्र परिदृष्टः, शक्तिः पुनरियं सादृश्यवत् पदार्थान्तरं प्रकारान्तरेणापि विनंक्ष्यति। कार्योत्पादानुत्पादाभ्यां वह्नावधिगता शक्तिः कुत एव सर्वभावेषु कल्प्यते इति चेत् ? एकत्र तस्याः कार्योत्पादानुगुणत्देन कल्पितायाः सर्वत्र तदुत्पत्त्यैवात्रानुमानात् ।। ____ अत्रोच्यते-न मन्त्रादिसन्निधौ कार्यानुत्पत्तिरदृष्टं रूपमाक्षिपति । यथान्वयव्यतिरेकाभ्यामवधृतसामर्थ्यो वह्निहस्य कारणम्, तथा प्रतिबन्धकमन्त्रादिप्रागभावोऽपि कारणम् । स च मन्त्रादिप्रयोगे सति निवृत्त इति सामग्रीवैगुण्यादेव दाहस्यानुत्पत्तिर्न तु शक्तिवैकल्यात् । भावस्य भावरूपकारणनियतत्वसे नहीं) अगर वह गुण स्वरूप है, तो फिर वह आश्रय के नाश से या विरोधी दूसरे गुण की उत्पत्ति से ही नष्ट होगी, क्योंकि हम समवाय नहीं मानते। जिससे जिसके नाश की हमको प्रतीति होती है, उसे ही हम उसके नाश का कारण मानते हैं । तुम्हारे बनाये हुए (द्रव्य का नाश उसके समवायिकारण के नाश से हो या असमवायकारण के नाश से ही हो, एवं गुण का नाश आश्रय के नाश से या विरोधी गुण की उत्पत्ति से ही हो) इस नियम को हम नहीं मानते, क्योंकि यह प्रतीति के विरुद्ध है। अगर उक्त सिद्धान्त को मानना आवश्यक ही हो तो द्रव्य और गुण के नाश के लिए ही उसे मानिए, जहां कि वह देखा गया है। शक्ति तो सादृश्यादि की तरह दूसरा ही पदार्थ है, अतः वह दूसरे ही प्रकार से नष्ट होगा। (उ०) दाह रूप कार्य की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति से वह्नि में जिस प्रकार की शक्ति का निश्चय करते हैं, उस प्रकार की शक्ति की कल्पना सभी भाव पदार्थों में क्यों करते हैं ? (प्र.) एक जगह कार्य की अनुकूलता से जैसी शक्ति की कल्पना करते हैं, दूसरी जगह भी कार्य की उत्पत्ति से ही उसी प्रकार की शक्ति की कल्पना करते हैं। . (उ०) इस पूर्वपक्ष के समाधान में कहना है कि मन्त्रादि का सामीप्य रहने पर दाह की अनुत्पत्ति से वह्नि में किसी अदृश्य शक्ति की कल्पना आवश्यक नहीं है, क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से वह्नि में दाह के कारणता की कल्पना जिस प्रकार करते हैं, उसी प्रकार अन्वय और व्यतिरेक से ही दाह के प्रति मन्त्रादि प्रतिबन्धकों के प्रागभाव में भी कारणता की कल्पना करते हैं । मन्त्रादि का प्रागभाव रूप यह कारण मन्त्रादि की संनिधि रहने पर नहीं रहते हैं, अतः मन्त्रादि के प्रयोग के स्थल में दाह नहीं होता है । उक्त स्थल में दाह की अनुत्पत्ति शक्ति के For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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