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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् संख्यैश्चारब्धेऽतिशयदर्शनात् । प्रचयश्च तूलपिण्डयोर्वर्तमानः पिण्डारम्भकावयवप्रशिथिलसंयोगानपेक्षमाण इतरेतरपिण्डावयवबहुत्व संख्या नहीं, क्योंकि समान संख्या के ( अथ च न्यूनाधिक परिमाणवाले ) अवयवों से उत्पन्न द्रव्यों में न्यूनाधिक परिमाण की उपलब्धि होती है। रूई के दो खण्डों से उत्पन्न एक अवयवी रूप रूई का महत्त्व, इन अवयवी के उत्पादक रूई के खण्डों में रहनेवाले 'प्रचय' से ही उत्पन्न होता है न्यायकन्दली संख्यैः स्थलैः सूक्ष्मैश्चारब्धयोर्द्रव्ययोः स्थूलारब्धे महत्त्वातिशयदर्शनात् । संख्यायाः कारणत्वे हि कार्यविशेषो न स्यात्, तस्या अविशेषात् । यत्र तु समानपरिमाणरवयवैरारब्धयोरवयवसंख्यावाहुल्यादेकत्र परिमाणातिशयो दृश्यते तत्रावयव. संख्यापि कारणमेष्टव्या, अन्यथा कार्यविशेषायोगः । यत्र समानसंख्यः सामानपरिमाणैश्च कार्यमारब्धम्, तत्र महत्त्वोत्पत्तावुभयोरपि कारणत्वम्, प्रत्येक. मुभयोरपि सामर्थ्यदर्शनात, तत्रान्यतरविशषादर्शनादित्येके । अपरे तु परिमाणस्यैव कारणतामाहुः, समानजातीयात् कार्योत्पत्तिसम्भवे विजातीयकारणकल्पनानवकाशात् । प्रचयमाह-प्रचयश्चेति । प्रचय इति द्रव्यारम्भकः प्रशिथिलः संयोगविशेपः । स तु द्वितूलकद्रव्यारम्भकयोस्तूलपिण्डयोर्वर्तमानः महत्त्व की उत्पत्ति होती है, अवयवों की बहुत्व संख्या से नहीं, क्योंकि समान संख्या के स्थूल और सूक्ष्म अवयवों से आरब्ध दो द्रव्यों के दोनों महत्त्वों में अन्तर देखा जाता है। अगर अवयवों में रहनेवाली संख्याओं को ही महत्त्व का कारण मानें तो उक्त अन्तर की उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि वह तो दोनों द्रव्यों के अवयवों में समान ही है। जहाँ समान परिमाण के अथ च विभिन्न संख्या के अवयबों से उत्पन्न दो द्रव्यों के दोनों महत्त्वों में अन्तर देखा जाता है, वहाँ (महान् अववयों से उत्पन्न द्रव्य में रहनेवाले महत्परिमाण के प्रति भी) अवयवों में रहनेवाली संख्या ही कारण है, अन्यथा उक्त महत्परिमाणों में अन्तर की उपपत्ति नहीं होगी। किसी सम्प्रदाय का कहना है कि समान संख्या के एवं समान परिमाणों के अवयवों से जिस द्रव्य की उत्पत्ति होती है, उस द्रव्य के महत्परिमाण का अवयवों की संख्या और उनके महत् परिमाण दोनों ही कारण हैं, क्योंकि संख्या एवं परिमाण दोनों में ही परिमाण की कारणता निश्चित है । उक्त स्थल में दोनों में से किसी एक को ही कारण मानने की कोई विशेष युक्ति नहीं है । इसी प्रसङ्ग में किसी दूसरे सम्प्रदाय का कहना है कि अवयवों का महत्त्व ही प्रकृत महत्परिमाण का कारण है, अवयवों की संख्या नहीं, क्योंकि जहाँ समानजातीय कारण से ही कार्य की सम्भावना हो वहाँ विभिन्न जातीय वस्तु में उसकी कारणता की कल्पना व्यर्थ है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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