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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे परिमाण प्रशस्तपादभाष्यम् मपि मुख्यापरिमाणप्रचययोनि । तत्रेश्वरबुद्धिमपेक्ष्योत्पन्ना परमाणुद्वथणुकेषु बहुत्वसंख्या, तैरारब्धे कार्यद्रव्ये व्यणुकादिलक्षणे रूपाधु( १ ) परिमाण ( २ ) संख्या और ( ३ ) प्रचय ( इन तीनों में से किसी ) से उत्पन्न होते हैं। (परमाणुओं से उत्पन्न होनेवाले) तीन परमाणु द्वचणुकों में से प्रत्येक में रहनेवाली तीन एकत्व संख्या एवं उक्त तीन एकत्व विषयक ईश्वर की अपेक्षाबुद्धि इन दोनों से तीनों परमाणु द्वयणकों में बहुत्व संख्या की उत्पत्ति होती है। इन तीन परमाणु घणुकों से उत्पन्न होनेवाले त्र्यसरेणु न्यायकन्दली इक्षावपि वंशस्य यादृशं दैर्ध्य तादृशं नास्तीत्युपचारः । नन्वेतेषु वास्तव एव ह्रस्वत्वव्यवहारः किं नेष्यते ? नेष्यते, तेष्वेव परापेक्षया दीर्घव्यवहारदर्शनात् । न चैकस्य दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चोभयमपि वास्तवं युक्तम्, विरोधात् । अथ कस्माद् दीर्घव्यवहार एव गौणो न भवति ? न, तस्योत्पत्तिकारणासम्भवात् । सर्वत्रैव भाक्तो ह्रस्वव्यवहारो भवतु ? नैवम्, मुख्यभावे गौणस्यासम्भवात् । अथेदानीमुत्पाद्यस्य परिमाणस्य कारणनिरूपणार्थमाह-अनित्यं चतुर्विधमपीति । अनित्यं चतुर्विधमपि दीर्घ ह्रस्वं महद् अणु चेति चतुविधं परिमाणम्, संख्यापरिमाणप्रचययोनि संख्यापरिमाणप्रचयकारणकम् । संख्याया परस्पर साक्षेप दीर्घत्व का भी व्यवहार होता है। ह्रस्वत्व और दीर्घत्व दोनों परस्पर विरुद्ध दो धर्म हैं, अतः एक आश्रय में उक्त दोनों धर्मों की वास्तविक सत्ता नहीं मानी जा सकती। (प्र०) तो फिर दीर्घत्व का ही व्यवहार गौण क्यों नहीं हैं ? (उ०) उनमें भाक्त दीर्घत्व के व्यवहार को गौण मानने का कारण नहीं है, अतः वहाँ दीर्घत्व व्यवहार को गौण नहीं मानते। (प्र०) सभी जगहों में ह्रस्वत्व व्यवहार को गौण ही क्यों नहीं मान लेते ? (उ०) जहाँ जिसका मुख्य व्यवहार सम्भव होता है, वहाँ उस व्यवहार को गौण नहीं माना जा सकता। अब उत्पत्तिशील परिमाण के कारणों का निरूपण करने के लिए 'अनित्यं चतुर्विधमपि' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं । 'अनित्यं चतुर्विधमपि' अर्थात् अनित्य दीर्घ, ह्रस्व, अणु एवं महत् ये चारों प्रकार के परिमाण 'संख्यापरिमाणप्रत्ययोनि' अर्थात् ये चारों प्रकार के परिमाण संख्या, परिमाण एवं प्रचय इन तीनों में से ही किसी से उत्पन्न होते हैं। संख्यादि तीनों कारणों में से (क्रमप्राप्त) संख्या में परिमाण की कारणता 'तत्र' इत्यादि से दिखलाते हैं । 'परमाणुभ्यामारब्धं द्वथणुकम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार दो द्वषणुकों से उत्पन्न होने के कारण 'द्वयणुक' ही यहाँ 'परमाणुद्वयणुक' शब्द का अर्थ है । ग्तेषु त्रिषु' अर्थात् For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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