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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३२० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे परिमाण प्रशस्तपादभाष्यम् चोत्पाद्ये महदणुत्वैकार्थसमवेते । समिदिक्षुवंशादिष्वञ्जसा दीपेष्वपि तत्प्रकर्षभावावमपेक्ष्य भाक्तो ह्रस्वत्वव्यवहारः । अनित्यं चतुर्विधशील हैं उन आश्रयों में ह्रस्वत्व और दीर्घत्व भी समवाय सम्बन्ध से उत्पत्तिशील ही हैं। लकड़ी, ईख, बाँस प्रभृति दीर्घ वस्तुओं में भी उनके उत्कर्ष और अपकर्ष से ह्रस्वत्व का गौण व्यवहार होता हैं। चारों प्रकार के अनित्य परिमाण न्यायकन्दलो कुवलयेऽपेक्ष्याणुव्यवहारः । यत्र हि मुख्यमणत्वं द्वयणुके तत्र महत्परिमाणस्याभावो दृष्टः । आमलकेऽपि यादृशं बिल्वे महत्परिमाणं तादृशं नास्तीत्येतावता साधयेणोपचारप्रवृत्तिः । दीर्घत्वह्रस्वत्वयोविशेष दर्शयति-दीर्घत्वह्रस्वत्वे इति । महच्चाणुत्वं च महदणुत्वे, उत्पाद्ये च ते महदणुत्वे चेत्युत्पाद्यमहदणुत्वे, ताभ्यामेकस्मिन्नर्थे समवेते ह्रस्वत्वदीर्घत्वे । यत्रोत्पाद्यं महत्त्वं व्यणुकादौ तत्रोत्पाद्यं दीर्घत्वम्, यत्र चोत्पाद्यमणुत्वं द्वयणुके तत्रोत्पाद्य ह्रस्वत्वमित्यर्थः । तत्र परमाणोः परिमण्डलत्वाद्धस्वत्वाभावो व्यापकत्वाच्चाकाशस्य दीर्घत्वाभाव में अणुत्व का व्यवहार होता है। जहाँ अणुत्व का मुख्य व्यवहार होता है जैसे कि द्वथणुक में, वहाँ महत्परिमाण के अभाव की भी प्रतीति होती है। आँवले में भी अणुत्व के गौण ठपवहार की प्रवृत्ति केवल इतने ही सादृश्य से होती है कि बिल्व में जिस प्रकार का उत्कृष्ट महत्परिमाण है, वह आंवले में नहीं है। _ 'दीर्घत्व ह्रस्वत्वे' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा दीर्घत्व एवं ह्रस्वत्व रूप दोनों परिमाणों का अन्तर दिखलाते हैं । 'महच्चाणुत्वञ्च महदणुत्वे' कथित इस व्युत्पत्ति के द्वारा 'दीर्घत्वह्रस्वत्वे' इत्यादि वाक्य का यह अर्थ है कि जिन द्रव्यों में उत्पत्तिशील महत्त्व एवं उत्पत्तिशील अणुत्व रहते हैं, उन्हीं में उत्पत्तिशील दीर्घत्व एवं उत्पत्तिशील ह्रस्वत्व भी समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। अर्थात् व्यणुकादि द्रव्यों में चूकि उत्पत्तिशील महत्त्व ही है, अतः वहाँ दीर्घत्व भी उत्पत्तिशील ही है । एवं द्वयणुक में चूँकि उत्पत्तिशील अणुत्व है तो फिर वहाँ ह्रस्वत्व भी उत्पत्तिशील ही है । इस प्रसङ्ग में कोई कहते हैं कि (अणु परिमाण के आश्रय) परमाणुरूप परिमण्डल' सभी से अल्पपरिमाण के होने के कारण ह्रस्वत्व परिमाण का आभय नहीं १. चणुक में अणुत्व का मुख्य व्यवहार होता है, वहाँ महत्त्व नहीं है। कुवलयादि द्रव्यों में एक विशेष प्रकार का उत्कृष्ट महत्त्व न रहने के कारण महत्त्व के रहते हुए भी पणुत्व का गौण व्यवहार होता है। गौण व्यवहार वस्तु की सत्ता का साधक नहीं है, अतः कुवलयादि द्रव्यों में अणुत्व नहीं है । तस्मात् यह कहना ठीक है कि अनित्य अणुपरिमाण केवल द्वथणुक में ही है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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