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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३१८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे परिमाण प्रशस्तपादभाष्यम् काशकालदिगात्मसु परममहत्त्वम् । अनित्यं त्र्यणुकादावेव । तथा चाण्वपि द्विविधम्-नित्यमनित्यं च । नित्यं परमाणुमनस्सु तत् पारिइनमें महत् (परिमाण ) नित्य और अनित्य भेद से दो प्रकार का है। नित्य महत्परिमाण आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार द्रव्यों में है, क्योंकि वे परममहत्त्व रूप हैं। इसी तरह अणु भी नित्य और अनित्य भेद से दो प्रकार का है । इन दोनों में से नित्य अणु (परिमाण) परमाणुओं और मनों में है। __न्यायकन्दली अनित्यं महृत्परिमाणं त्र्यणुकादावेव नाकाशादिष्वित्यर्थः । यथा महद् द्विविध तथावपि द्विविधं नित्यमनित्यं च । उभयत्रापि चकारः प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थः। नित्यमणुपरिमाणं परमाणुमनःसु, उत्पत्तिविनाशकारणाभावात् । पारिमाण्डल्यमिति सर्वापकृष्टं परिमाणम् । अनित्यमणुपरिमाणं द्वयणुक एव नान्यवेत्यर्थः । एतेनैतदुक्तं भवति, अणुपरिमाणप्रभेद एव परमाणुपरिमाणं महत्परिमाणप्रभेदश्च परममहत्परिमाणम्, अन्यथा परमशब्देन विशेषणायोगात् । यत् खलु परिमाणं रूपसहायं स्वाश्रयं प्रत्यक्षयति तत्र महदिति व्यपदेशः, यच्च से देते हैं । 'तत्र' अर्थात् उन चारों प्रकारों के परिमाणों में 'महत्' नित्य और अनित्य भेद से दो प्रकार का है। किन द्रव्वों में वह नित्य है ? इस आकाङ्क्षा की पूर्ति 'नित्यमाकाशकालदिगात्मसु' इस वाक्य से की गयी है। आकाशादि द्रव्यों में रहनेवाले 'महत्त्व' को ही 'परममहत्त्व' कहते हैं। अनित्य महत्परिमाण यसरेणु प्रभृति द्रव्यों में ही है, आकाशादि द्रव्यों में नहीं। जिस प्रकार महत्त्व नित्य और अनित्व भेद से दो प्रकार का है, उसी प्रकार 'अणु' भी दो प्रकार का हैं। दोनों वाक्यों के 'च' शब्द परिमाण की और प्रकार की सम्भावनाओं को हटाने के लिए हैं। परमाणुओं और मनों में केबल नित्य अणु परिमाण ही रहता है, क्योंकि उनके परिमाणों का कोई बिनाशक नहीं है । सब से छोटे परिमाण को पारिमाण्डल्य कहते हैं । अनित्य अणुपरिमाण केवल द्वयणुकों में ही है और कहीं नहीं। इससे यह अर्थ निकला कि परमाणुओं का परिमाण भी अणुपरिमाण का ही एक भेद है । एवं आकाशादि का परममहत्परिमाण भी महत्परिमाण का ही एक भेद है। अगर आकाशादि का परिमाण महत् न हो तो फिर उसमें 'परम' विशेषण ही व्यर्थ हो जाएगा। रूप के साहाय्य से जो परिमाण अपने आश्रय के प्रत्यक्ष का कारण होता है, उसे महत्परिमाण कहते हैं । जिससे यह वैसे ही दोनों को दीर्घता में भी। फलतः ह्रस्वस्व एवं अणुत्व के दो दो भेद एवं महत्त्व और दीर्घत्व के दो दो भेद सब मिलाकर आठ भेद की हो आपत्ति ठीक बैठती है, और यह बात भ्यायकन्दली के 'दीर्घ ह्रस्वञ्चेति' इस वाक्य से भी स्पष्ट होती है, अतः मैंने 'षड्वियमेव' के स्थान पर 'अष्टविषमेव' ऐसा ही पाठ रखना उचित समझा। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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