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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे परिमाण न्यायकन्दली तदर्थविवक्षा सहसोपजाता गच्छतृणसंस्पर्शज्ञानवदस्पष्टरूपा कार्येण कल्पनीयेति चेत् ? विप्रलम्भकस्यापि विवक्षाविशेषेण तदर्थानुभवः कल्प्यताम्, असंविदितेऽर्थे तद्विषयस्य विवक्षाविशेषस्यायोगात् । तदानीं विप्रलम्भकस्य तदर्थानुभवो नास्तीति चेत् ? मा स्म भूत्, स्मरणं तावद्विद्यते, विप्रलम्भको हि पूर्वानुभूतमेवार्थमन्यथाभूतमन्यथा च कथयति । तत्रास्य तदर्थविवक्षा स्मरणकारणिका भवन्ती पारम्पर्येण तदनुभवकारणिकेति नास्ति ब्यभिचारः, मिथ्यानुभवपूविकाया अपि विवक्षायाः पारम्पर्येण सत्यानुभवपूर्वकत्वात् । अनुभवश्चार्थाव्यभिचारीति शब्दादर्थसिद्धिः । अन्यथा वाक्यश्रुतौ श्रोतुरर्थप्रतीत्यभावाद् विवक्षामात्रप्रतीतेश्चापुरुषार्थत्वाच्छाब्दो व्यवहार उच्छिद्येत, वादिप्रतिवादिनोर्जयपराजयव्यवस्थानुपपत्तिः, विवक्षामात्रं प्रत्युभयोरपि भूतार्थवादित्वात् । यच्चोक्तं द्रव्यादव्यतिरिक्तं परिमाणम्, द्रव्याग्रहे तबुद्धयभावदिति, तदसिद्धम् । दूराद् द्रव्यग्रहणेऽपि तत्परिमाणविशेषस्याग्रहणात् । अत एव महानप्यणुरिव भ्रान्त्या दृश्यते । अतः (भ्रान्तपुरुष के शब्द प्रयोग रूप) कार्य से ही यह अनुमान करते हैं कि (शब्द प्रयोग से पहिले) भ्रान्त पुरुष को भी अज्ञात अर्थ विषयक अस्फुट विवक्षा सहसा उत्पन्न होती है। जैसे कि राह चलते आदमी को तृण के स्पर्श का हठात् अस्पष्ट प्रतिभास होता है। (उ०) तो फिर उस प्रतारक के विशेष प्रकार की विवक्षा से उसके उस अर्थविषयक अनुभव की भी कल्पना कीजिए, क्योंकि अज्ञात अर्थ की विवक्षा कभी भी नहीं उत्पन्न होती। (प्र०) उस समय ठगनेवाले पुरुष को उस विषय का अनुभव तो नहीं है। (उ०) अनुभव न रहे, स्मरण तो रह सकता है। पहिले समझी हुई वस्तु को ही वह प्रतारक दूसरों से कहता है। इस प्रकार प्रकृत में भी कि अर्थ विषयक विवक्षा स्मरण का कारण है. अत: परम्परा से वह अनुभव का भी कारण होती है। सुतराम् (शब्द और विवक्षा के कार्यकारणभाव में) व्यभिचार नहीं है । अतः मिथ्या अनुभव से उत्पन्न होनेवाली विवक्षा का सत्यानुभव भी परम्परा से कारण है । तस्मात् विवक्षा एवं यथार्थानुभव इन दोनों के कार्यकारणभाव में भी व्यभिचार नहीं है । अगर ऐसी बात न होती तो वाक्य के सुनने से सुनने वाले को अर्थ की प्रतीति न होकर विवक्षा की ही प्रतीति होती, किन्तु यह वाक्य का प्रयोग करने वाले को अभीष्ट नहीं है, अतः शब्द से होनेवाले व्यवहार का ही उच्छेद हो जाएगा । वादी एवं प्रतिवादी में हार-जीत की व्यवस्था भी उठ जाएगी, क्योंकि विवक्षा के प्रसङ्ग में तो दोनों बराबर ही कहते हैं। __ यह जो आपने कहा कि (प्र०) द्रव्य और उसके परिमाण दोनों अभिन्न हैं, क्योंकि द्रव्यज्ञान के बिना उसके परिमाण का ज्ञान नहीं होता है, (उ०) सो ठीक नहीं है, For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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