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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३०३ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली छिदिक्रिया छेद्येन सम्बध्यते भिद्यते च, तथा ज्ञानक्रियापि ज्ञेयेन सह संभन्त्स्यते भेत्स्यते च । सहोपलम्भनियमस्यापि विपक्षाद् व्यावृत्तिः सन्दिग्धा, ज्ञानस्य स्वपरसंवेद्यतामात्रेणैव नीलतद्धियोर्युगपद्ग्रहणनियमस्योपपत्तेः । बाह्याभावाज्ज्ञानं परस्य संवेदकं न भवतीति चेत् ? बाह्याभावसिद्धौ हेतोविपक्षाद् व्यावृत्तिसिद्धिः, तत्सिद्धौ चास्य विपक्षाभावं प्रति हेतुत्वमित्यन्योन्यापेक्षित्वम् ? तदेवास्तु किमनेन ? असिद्धश्च सहोपलम्भनियमो नीलमेतदिति बहिर्मुखतयार्थेऽनुभूयमाने तदानीमेवान्तरस्य तदनुभवस्यानुभवात् । ज्ञानस्य स्वसंवेदनतासिद्धौ सहोपलम्भनियमसिद्धिरिति चेत् ? स्वसंवेदनसिद्धौ किं प्रमाणम् ? यत्प्रकाशं तत्स्वप्रकाशे परानपेक्षं यथा प्रदीप इति चेत् ? प्रदीपस्य तद्देशतितमोपनयने व्यापारः, स चानेन स्वयमेव कृत इति तदर्थं प्रदीपान्तरं नापेक्षते, वैयर्थ्यात् । स्वप्रतिपत्तौ तु चक्षुरादिकमपेक्षत एवेति साध्यविकलता दृष्टान्तस्य । अथ प्रकाशकत्वं ज्ञानत्वमभिप्रेतम् ? तस्मात परानपेक्षा, तदानीमसाधारणो हेतुः । किसी राजा की आज्ञा भी नहीं है कि जड़ और प्रकाश में सम्बन्ध न हो। जैसे कि छेदन क्रिया छेद्य वस्तु से भिन्न होती हुई भी उसके साथ सम्बद्ध होती है, उसी प्रकार ज्ञान रूप क्रिया भी ज्ञेय वस्तु से भिन्न होने पर भी उसके साथ सम्बद्ध होगी। एवं कथित 'सहोपलम्भनियम' रूप हेतु में भी विपक्ष की व्यावृत्ति सन्दिग्ध ही है, क्योंकि ज्ञान को 'स्व' एवं 'स्व' से भिन्न (अपना विषय) दोनों का प्रकाशक मान लेने से ही उक्त 'सहोपलम्भ' नियम की उपपत्ति हो जाएगी। (प्र०). बाह्य वस्तु की तो सत्ता ही नहीं हैं, फिर ज्ञान दूसरे का ज्ञापक कैसे होगा। (उ०) यह कहना तो स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय से दूषित है, क्योंकि बाह्य वस्तु की सत्ता के उठ जाने पर सहोपलम्भ रूप हेतु में विपक्षव्यावृत्ति का निश्चय होगा, और विषक्ष व्यावृत्ति के सिद्ध हो जाने पर सहोपलम्भनियम रूप हेतु के विपक्ष । बाह्य वस्तु) के अभाव की सिद्धि होगी। (प्र.) उक्त हेतु में विपक्ष की व्यावृत्ति के न रहने से ही क्या ? (उ०) वस्तुतः सहोपलम्भनियम रूप हेतु ही असिद्ध है, क्योंकि नील और नीलविषयक ज्ञान इन दोनों का अनुभव एक समय में नहीं होता। नील की बहिर्मुख प्रतीति हो जाने के अव्यवहित उत्तर क्षण में नील ज्ञान की अन्तर्मुखतया उपलब्धि होती है। (प्र.) ज्ञान को स्वतः प्रकाश मान लेने से ही सहोपलम्भनियम की सिद्धि होगी। (उ०) ज्ञान को स्वसंवेदन (स्वतः प्रकाश) मानने में ही क्या युक्ति है ? (प्र०) जो प्रकाश रूप होता है वह अपने प्रकाश के लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता, जैसे कि प्रदीप । (उ०) प्रत्यक्ष के उत्पादन में प्रदीप का इतना ही उपयोग है कि वह विषयदेश के अन्धकार को हटाता है। प्रदीप अपने प्रत्यक्ष के लिए भी अन्धकार को हटाने का काम स्वयं कर लेता है, अतः प्रदीप के प्रत्यक्ष में दूसरे प्रदीप की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु चक्षुरादि For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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