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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३०७ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दलो स्वरूपेण सत्याः । सत्यं सत्याः, न तु तेन रूपेण प्रतिपादकाः । ककारादिरूपाध्यारोपेण प्रतिपादकाः, तदेषां कार्योपयोगित्वमसत्यमेवेति पूर्वपक्षसंक्षेपः । यत्तावदुक्तं ग्राह्यलक्षणायोगादिति न तदर्थाभावसाधनसमर्थम्, ग्राह्यलक्षणो ह्यर्थो ग्राह्यो न भवेन्न तु तस्यासद्भावः, ग्रहणाभावस्य पिशाचादिवत् स्वरूपविप्रकर्षणाप्युपपत्तेः । ग्रहणयोग्ये सत्यग्रहणादभावसिद्धिरिति चेत् ? कथं पुनरस्य योग्यता संप्रधारिता ? नहि तस्य ग्रहणं क्वचिदभूत्, भूतं चेन्न ग्राह्यलक्षणायोगः । किञ्च, ग्राहकाधीनं ग्रहणम्, ग्राहकं च ज्ञानं स्वात्ममात्रनियतमित्येतावतंव तदन्यस्याग्राह्यता, ग्राह्याभावादेव चेदमग्रहणमिति साध्याविशिष्टम् । अपि चेदं भवान् पृष्टो व्याचष्टां का ज्ञानाकारस्य ग्राह्यता ? नहि तस्यास्ति ज्ञानहेतुत्वं तदव्यतिरेकात् । नाप्याकाराधायकत्वम्, आकारद्वयाननुभवात् । न च कार्योपयोगित्व रूप से असत्य ही हैं। इतना तक बाह्य अर्थ की यथार्थ सत्ता माननेवाले हम लोगों पर बाह्य अर्थ की यथार्थ सत्ता को न माननेवाले बौद्धों के आक्षेप रूप पूर्वपक्ष का संक्षेप में वर्णन है। (अब इस प्रसङ्ग में हम लोगों का उत्तर सुनिये) यह जो कहा गया है कि 'ग्राह्यलक्षण' के अयोग से बाह्य वस्तुओं की सत्ता नहीं हैं यह इसलिए गलत है कि ग्राह्यलक्षण का अयोग रूप यह हेतु बाह्य वस्तु के स्वतन्त्र अस्तित्व के खण्डन का सामर्थ नहीं रखता है । इससे इतना ही हो सकता है कि बाह्य वस्तुएँ ज्ञात न हो सकेंगी, किन्तु इससे इनके अस्तित्व का लोप नहीं हो सकता, क्योंकि वस्तुओं के ग्रहण (ज्ञान) का न होना स्वरूपविप्रकर्ष (ज्ञान होने की योग्यता के अभाव) से भी हो सकता है। जैसे कि पिशाचादि की सत्ता रहते हुए भी उनका ग्रहण नहीं होता। (प्र.) ग्रहण की योग्यता रहने पर भी कभी-कभी कोई विषय गृहीत नहीं होता है, इससे समझते हैं कि उसकी सत्ता नहीं है । (उ०) आपने इसकी योग्यता कैसे निश्चित की ? क्योंकि आपको तो उसका भी ज्ञान नहीं है । अगर है तो फिर उसमें ग्राह्य लक्षण रूप हेतु ही नहीं है । और भी बात है, ग्रहण ग्राहक से होता है। ज्ञान ही ग्राहक है। वह केवल अपने स्वरूप में ही नियत है, (अर्थात् उसमें किसी बाह्य वस्तु का सम्बन्ध नहीं है ), केवल इसीलिए ज्ञान से अतिरिक्त वस्तु को आप अग्राह्य कहते हैं । एवं (आप ही कहते हैं कि) वस्तुओं का ग्रहण इसलिए नहीं होता कि वह अग्राह्य हैं । अतः यह ग्राह्यलक्षण का अयोग रूप हेतु साध्याविशिष्ट है, (अर्थात् सिद्ध नहीं है, किन्तु हेतु को सिद्ध होना चाहिए)। और भी मुझे पूछना है कि ज्ञानाकार में यह ग्राह्यता क्या है ? उस आकार में ज्ञान की कारणता तो ग्राह्यता नहीं है, क्योंकि वह आकार ज्ञान से अभिन्न है। (अतः उक्त ग्राह्यता ज्ञानकारणत्व रूप नहीं है) । ज्ञान में आकार सम्पादन की क्षमता भी ग्राह्यता नहीं हो सकती, क्योंकि विषयों के आकार से भिन्न ज्ञानाकार नाम की किसी दूसरी वस्तु का अनुभव नहीं For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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