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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली वित्तक्षणः स्वेनात्मना सह सर्वान् प्राणिनो युगपदुपलभ्यते । न च तेषां सार्वज्ञज्ञानाभेद इत्यनैकान्तिकत्वमिति चेत् ? न, अनियमात् । क्षणाभिप्रायेण तावद् ययोः सहोपलम्भस्तयोरसौ नियत एव, क्षणयोः प्रत्येकं पुनरनुपलपम्भात् । किन्तु सन विवक्षित: सन्तानाभिप्रायेण सहोपलम्भनियमः। न च सर्वज्ञसन्तानस्य चित्तान्तरसन्तानेन सह युगपदुपलम्भोऽस्ति, सर्वज्ञस्य कदाचित् स्वात्ममात्रप्रतिष्ठस्यापि सम्भवात् । न च तदानीमसर्वज्ञः, सर्वज्ञात् सामर्थ्यसम्भवात् । अपचन्नपि पाचको यथा, तथा यद्वद्यते येन वेदनेन तत्ततो न भिद्यते, यथात्मा ज्ञानस्य, वेद्यन्ते च नीलादयः । भेदे हि ज्ञानेनास्य वेद्यत्वं न स्यात्, तादात्म्यस्य नियमहेतोरभावात्, तदुत्पत्तेरनियामकत्वात् । अन्येनान्यस्यासम्बद्धस्य वेद्यत्वे चातिप्रसङ्गादिति भेदे नियमहेतोः सम्बन्धस्य व्यापकस्यानुपलब्ध्या भेदाद्विपक्षाद् ही है, तात्त्विक नहीं, क्योंकि चन्द्र वस्तुतः एक ही है । ( उ० ) सर्वज्ञत्यविषयक ज्ञान का क्षण तो अपने साथ सभी आत्माओं को ग्रहण करता है, किन्तु सर्वज्ञत्वविषयक ज्ञान और आत्माओं में तो अभेद नहीं है, अत: 'सहोपलम्भनियम' रूप हेतु व्यभिचरित है । (प्र०) यह व्यभिचार दोष नहीं है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि सर्वज्ञ-चित्त-विषयक ज्ञान के साथ और सभी चित्त अवश्य ही गृहीत हों। क्षण ( प्रत्येक विज्ञान में भासित होनेवाले प्रत्येक क्षण में स्थित चित्त या आस्मा ) के अभिप्राय से जिन दोनों ( सन्तानियों के समूह में स्थित प्रत्येक व्यक्ति ) के सहोपलम्भ का नियम है, उन दोनों में अभेद भी अवश्य ही है, क्योंकि उन दोनों में से प्रत्येक की अलग से उपलब्धि नहीं होती है । किन्तु सर्वज्ञत्व ज्ञान के समय जो और सभी आत्माओं की उपलब्धि होती हैं, वह सन्तान के अभिप्राय से है, सन्तान ( समूह ) में स्थित प्रत्येक के अभिप्राय से नहीं, क्योंकि कभी सर्वज्ञत्व की प्रतीति अगर आत्माओं को छोड़कर केवल स्वमात्र विषयक भी हो सकती है, किन्तु इससे उस समय भी वह असर्वज्ञ नहीं हो जाता, क्योंकि उस समय भी उस पुरुष से सर्वज्ञ पुरुष से होनेवाले असाधारण कार्य के सम्पादन की सम्भावना बनी रहती है । जैसे कि पाक न करते समय भी रसोइया 'पाचक' कहलाता ही है । अतः जिस ज्ञान के द्वारा जो गृहीत होता है, वह उससे भिन्न नहीं है । जैसे कि आत्मा ज्ञान से भिन्न नहीं है । नीलादि भी ज्ञात होते हैं । अतः नीलादि और उनके ज्ञान अगर भिन्न हों तो फिर नीलादि उनसे ज्ञात ही नहीं होंगे। (घट विषयक ज्ञान से घट ही ज्ञात होता है इस ) नियम का कारण ( उक्त ज्ञान और घटादि विषयों का ) तादात्म्य तो है नहीं और उसकी उत्पत्ति भी नियामक नहीं है ( उत्पत्ति और अभेद ये दो ही व्याप्ति के ग्राहक हैं ), परस्पर असम्बद्ध दो वस्तुओं में से एक को अगर दूसरे का ज्ञापक माने ( घट ज्ञान से पट भी ज्ञात हो इत्यादि ) आपत्तियाँ होंगी, अतः ज्ञान और विषय इन दोनों में भेद का ज्ञापक और For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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