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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे संख्या प्रशस्तपादभाष्यम् ज्ञानयोगपद्यप्रसङ्ग इति चेत् ? स्यान्मतम्-ननु ज्ञानानां बध्यघातकविरोधे ज्ञानयोगपद्यप्रसङ्ग इति । न, अविनश्यतोरवस्थानप्रतिषेधात् । ज्ञानायौगपद्यवचनेन ज्ञानयोयुगपदुत्पत्तिरविनश्यतोश्च (प्र०) इस पक्ष में ज्ञानयोगपद्य' की आपत्ति होगी? अर्थात् अगर 'वध्यघातक' रूप विरोध मानें तो एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति (ज्ञानयोगपद्य ) की आपत्ति होगी। (उ०) नहीं, क्योंकि ( ज्ञानयोगपद्य के खण्डन से ) एक ही क्षण में अविनाशावस्था वाले दो ज्ञानों की सत्ता खण्डित होती है। अर्थात् उक्त ज्ञानायौगपद्य' वाक्य न्यायकन्दली अपेक्षाज्ञानस्य संस्काराहेतुत्वे द्रव्यविवेकेनैकगुणयोः स्मरणं प्रमाणम् , गुणविशिष्टद्रव्यज्ञानस्य तद्धेतुत्वे चाविशिष्टद्रव्यस्मरणं प्रमाणम् । यदि ज्ञानमुत्पद्य पूर्वोत्पन्नं ज्ञानं विनाशयति तदेतस्मिन् पक्षे तयोः सहावस्थानं प्राप्नोति, ततश्च ज्ञानायौगपद्यादिति सूत्रविरोध इति केनचिदुक्तं तदाशङ्कते-ज्ञानयोगपद्यप्रसङ्ग इति चेत् ? स्यान्मतमित्यादिना । अस्य विवरणं करोति-नन्वित्यादिना । समाधत्ते-नेति । एकस्मिन् क्षणे विनाश्यविनाशकज्ञानयोः सहावस्थान न दोषाय, ज्ञानायोगपद्यादिति सूत्रेणाविनश्यतोरवस्थानप्रतिषेधात्। एतदेव दर्शयति-ज्ञानायौगपद्यवचनेन ज्ञानयोयुगपदुत्पत्तिरविनश्यतोश्च युगपदवस्थानं से द्वित्व का विनाश नहीं हो सकता है। द्रव्य को छोड़कर दोनों गुण रूप एकत्वों के स्मरण रूप प्रमाण से ही यह समझते हैं कि 'उक्त अपेक्षाज्ञान संस्कार का कारण नहीं है। एवं गुणविशिष्ट द्रव्य के स्मरण रूप प्रमाण से ही यह भी समझते हैं कि गुण विशिष्टद्रव्य का ज्ञान संस्कार का कारण है'। किसो का कहना है कि (प्र.) अगर एक ज्ञान उत्पन्न होकर पहिले उत्पन्न दूसरे ज्ञान को ( अपने अगले ही क्षण में, नष्ट करता है तो फिर इस (वध्यघातक ) पक्ष में उन दोनों ज्ञानों की एक ही (विना शक ज्ञानोत्पत्ति ) क्षण में स्थिति प्राप्त हो जाती है। ऐसा होने पर 'ज्ञानायोगपद्यात्' यह सूत्र विरुद्ध होता है। यही आक्षेप 'ज्ञानायौरपद्यप्रसङ्गः स्यान्मतम्' इत्यादि से करते हैं । 'ननु' इत्यादि से इसी आक्षेपोक्ति की व्याख्या करते हैं । 'न' इत्यादि से इस आक्षेप का समाधान इस प्रकार करते हैं कि एक क्षण में विनाश्य एवं विनाशक इन दो ज्ञानों की अवस्थिति से ज्ञान योगपद्य रूप दोष नहीं होता है। ज्ञानायौगपद्यात्' इस सूत्र के द्वारा विनाश्यविनाशकभावानापन्न परस्पर निरपेक्ष दो ज्ञानों की एक क्षण में सत्ता का ही निषेध महर्षि कणाद को उक्त सूत्र से अभीष्ट है । 'ज्ञानायोगपद्यवचनेन' इत्यादि भाष्य के द्वारा यही उपपादन किया गया है। अर्थात् वध्यघातक पक्ष में अनेक ज्ञानों की एक क्षण में (एक आत्मा में) उत्पत्ति की आपत्ति For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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