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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या प्रशस्तपादभाष्यम् वध्यघातकपक्षेऽपि समानो दोष इति चेत् ? स्यान्मतम्ननु वध्यघातकपक्षेऽपि तहि दव्यज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्गः ? कथम् ? द्वित्वसामान्यबुद्धिसमकालं संस्कारादपेक्षाबुद्धिविनाशादिति। न, (प्र०) 'वध्यघातक' रूप विरोध पक्ष में भी तो द्रव्य ज्ञान की अनुत्पत्ति रूप आपत्ति है ही, क्योंकि द्वित्वत्व जाति के ज्ञान के समय ही संस्कार से अपेक्षाबुद्धि का नाश हो जाएगा। ( उ०) नहीं, न्यायकन्दली शीघ्रमुत्पादात् क्रमस्याग्रहणे द्वित्वद्रव्ययोरेकस्मिन्नेव ज्ञाने प्रतिभास इत्यभिमानः। वस्तुवृत्त्या तु पूर्वं द्वित्वस्य प्रतिभासस्तदनु द्रव्यस्येत्यर्थः । अत्र प्रकृतानुरूपं दृष्टान्तमाह-यथेति । शब्दवदाकाशमित्यत्र शब्दज्ञानमाकाशज्ञानं शब्दविशिष्टाकाशज्ञानं च त्रीणि ज्ञानान्याशत्पद्यन्ते यथा, तथा द्वित्त्वादिविज्ञानोत्पत्तावपि । किमुक्तं स्यात ? यथा शब्दादिज्ञानेष्वाशुभावितया क्रमस्याग्रहणे - युगपत्प्रतिभासाभिमानस्तथा द्वित्वद्रव्य ज्ञानयोरपीति । वध्यघातकपक्षेऽपि द्रव्यज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्ग इति केनचिदुक्तं तदाशते-वध्यघातकपक्षेऽपीति । अस्यार्थं विवृणोति स्यान्मतमित्यादिना । यदि गुणबुद्धिसमकालं द्वित्वविनाशे द्रव्यज्ञानं नोत्पद्यते ? 'द्व द्रव्ये' ये दो ज्ञान है, जो अत्यन्त शीव्रता से एक के बाद उत्पन्न होते हैं। इस शीघ्रता के कारण ही दोनों का अन्त र समझ में नहीं आता, एवं यह अभिमान होता है कि 'द्वे द्रव्ये' इस आकार का एक ही विशिष्टज्ञान है, जिसमें द्वित्व और द्रव्य दोनों हो प्रतिभासित होते हैं। किन्तु वस्तुतः यहाँ पहिले ( ज्ञान में) द्वित्व का प्रतिभास होता है पीछे ( के ज्ञान में ) द्रव्य का ! 'यथा इत्यादि से इस प्रसङ्ग में अनुरूप दृष्टान्त देते हैं। अभिप्राय यह है कि 'शब्दवदा काशम्' यहाँ पर शब्दज्ञान, आकाशज्ञान, एवं शब्दविशिष्ट आकाश ज्ञान ये तीन ज्ञान क्रमशः अत्यन्त शीघ्रता से उत्पन्न होते हैं । एवं इस अत्यन्त शीघ्रता के कारण ही तीनों ज्ञानों का अन्तर गृहीत नहीं हो पाता और तीनों शब्द, आकाश और शब्दविशिष्ट आकाश इके एक ही समय प्रतिभासित होने का अभिमान होता है । वैसे ही द्वित्वज्ञान और द्रव्यज्ञान इन दोनों में भी है। __ किसी की शङ्का है कि वध्यघातक पक्ष मे 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के द्रव्यज्ञान की अनुपपत्ति है ही। बध्यघातकपक्षेऽपि' इत्यादि से इसी शङ्का का उत्थापन करके 'स्यान्मतम्' इत्यादि से उसकी व्याख्या करते है । अर्थात् द्वित्व रूप गुणविषयक द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान के समय ही द्वित्व के नष्ट हो जाने के कारण द्रव्यविषयक उक्त 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान की उत्पत्ति न भी हो फिर भी वध्यघातक पक्ष में द्रव्य ज्ञान की अनुत्पत्ति रूप दोष है ही। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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