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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे संख्यान तु लैङ्गिकं ज्ञानममेदेनोत्पद्यते । तस्माद्विषमोऽयमुपन्यासः । न, आशुत्पत्तेः। यथा शब्दवदाकाशमित्यत्र त्रीणि ज्ञानान्याशूत्पद्यन्ते, तथा द्वित्वादिज्ञानोत्पत्तावित्यदोषः । अर्थात् ( विशिष्टज्ञानरूप विशेष्य ज्ञान में विशेषण कारण है), अतः लैङ्गिक ज्ञान अर्थात् अनुमिति में लिङ्ग अर्थात् हेतु अभेद सम्बन्ध से भासित नहीं होता, ( किन्तु 'श्वेतः शङ्खः' इत्यादि आकार के विशेष्य ज्ञान अथवा विशिष्ट ज्ञान में 'श्वेत' रूप विशेषण अभेद सम्बन्ध से भासित होता है ), अतः विशेष्य में विशेषण के न रहते हुए भी विशेषण के केवल ज्ञान से ही विशिष्ट ज्ञान की उपपत्ति के लिए लैङ्गिक ज्ञान को दृष्टान्त रूप में उपस्थित करना युक्त नहीं है, क्योंकि लङ्गिक ज्ञान एवं विशेष्य ज्ञान दोनों समान नहीं हैं । ( प्र०) 'द्वे द्रव्ये' इस प्रत्यक्षात्मक ज्ञान से द्रव्य की तरह उसमें विशेषणीभूत द्वित्व भी प्रकाशित होता है, किन्तु उस समय द्वित्व न्यायकन्दली समवेताच्छ्वैत्याच्छ्वेतगुणाच्छ्वैत्यबुद्धेः श्वेते द्रव्ये बुद्धिर्भवति श्वेतं द्रव्यमिति : ते विशेषणविशेष्यबुद्धी कार्यकारणभूते कार्यकारणस्वभावे इति सूत्रेण विशेषणस्यानुरञ्जकत्वमुक्तम् । तच्चाविद्यमानस्य नास्तीति भावः । सम्प्रति लैङ्गिकज्ञानस्य विशेष्यज्ञानात् 'तु' शब्देन विशेष सूचयन्नाह-न त्विति । लैङ्गिकं ज्ञानं लिङ्गाभेदेन लिङ्गिनो लिङ्गोपसर्जनताग्राहितया नोत्पद्यते । तस्माद्विषमोऽयमुपन्यासः । लैङ्गिकवदित्युपन्यासो विषमो द्वे द्रव्ये इति ज्ञानेन सह तुल्यो न भवतीत्यर्थः । द्वे द्रव्ये इति ज्ञानकाले द्वित्वमपि नास्ति कथं तद्विशिष्टमेव ग्रहणम् ? न, ज्ञानोत्पत्तेः पूर्वस्मिन् क्षणे तस्य सद्भावात् । सर्वत्र श्वेत द्रव्य में श्वैत्यबुद्धि की उत्पत्ति होती है, क्योंकि श्वैत्य बुद्धि एवं श्वेत गुण इन दोनों में पहिला कार्य है और दूसरा कारण । अब लैङ्गिक ज्ञान ( अनुमिति से प्रकृत विशेष्य ( विशिष्ट ) ज्ञान में 'तु' शब्द के द्वारा अन्तर दिखलाते हुए 'न तु' इत्यादि भाष्य लिखते हैं । अर्थात् (जिस प्रकार श्वेतः शङ्खः' इस विशिष्टबुद्धि में श्वेत गुणविशिष्ट अभेद सम्बन्ध से भासित होता है, उसी प्रकार) लैङ्गिक ज्ञान में लिङ्ग का अभेद भासित नहीं होता है, फलतः अनुमिति में साध्य का भान होता है, किन्तु साध्य में विशेषण होकर हेतु का भान नहीं होता, अत: कोई भी अनुमिति लिङ्गाभेदविशिष्ट लैङ्गिक विषयक न होने के कारण लिङ्ग में साध्य की उपसर्जनता नहीं होती। तस्मात् इसका दृष्टान्त रूप से 'लैङ्गिकवत्' इस वाक्य का उत्थापन 'विषम' है, अर्थात् लैङ्गिकवत् यह दृष्टान्त प्रकृत 'हे द्रव्ये' इस ज्ञान के बराबर नहीं है । (प्र०) 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान के समय जब द्वित्व की सत्ता ही नहीं है तो फिर द्वित्व से युक्त द्रव्य का उस ज्ञान से ग्रहण ही कैसे होता है ? (उ०) For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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