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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् २८३ न्यायकन्दली एतेन शतसङ्ख्याद्युत्पत्तिरपि समथिता । प्रत्येकमनुभूतेष्वेकैकगुणेषु क्रमभाविनां संस्काराणामन्त्यगुणानुभवानन्तरं शतव्यवहारसंवर्तकादृष्टाधुगपदभिव्यक्तौ संयोगैकत्वादनेकविषयैकस्मरणोत्पादे सत्यनुभवस्मरणाभ्यामपेक्षाबुद्धिभ्यां स्वाश्रयेषु शतसङ्ख्या जन्यते । सा च सर्वद्रव्ये संस्कारसचिवा अन्त्यद्रव्यसंयुक्तेन्द्रियज्ञानविषयत्वात् प्रत्यक्षैव । यत्र विनष्टेषु सङ्घयेष्वन्ते सङ्कलनात्मकः प्रत्ययो जायते, शतं पिपीलिकानां मया निहतमिति, तत्र कथं शतसङ्ख्याया उत्पत्तिः ? आश्रयाभावात् नोत्पद्यत एव तत्र सा, कारणाभावात्। शतव्यवहारस्तु रूपादिष्विव गौण इत्येके समर्थयन्ति । अपरे तु प्रतीतेस्तुल्यत्वादुपचारकल्पनामनादृत्यातीतानामेव द्रव्याणां संस्कारोपनीतत्वादाश्रयतामिच्छन्ति । यदत्यन्तममत् खपुष्पादि, तदकारणम्, निःस्वभावत्वात् । अतीतानां तु वर्तमानकालसम्बन्धो नास्ति, न तु स्वरूपम्, तेषां इससे सौ प्रभृति संख्याओं की उत्पत्ति का भी समर्थन होता है। सौ द्रव्यों में से प्रत्येक में क्रमशः यह एक है) इस आकार के 'एक' गुण का अनुभव होता है। उन अनुभवों से एकत्व गुण विषयक संस्कारों की क्रमशः उत्पत्ति होती है । अन्तिम 'एक' रूप गुणविषयक अनुभव के बाद सौ विषयक व्यवहार के सम्पादक अदृष्ट से वे सभी संस्कार उबुद्ध हो जाते हैं । (किन्तु उन सभी संस्कारों से) आत्मा और उनके एक ही संयोग के कारण अनेक एकत्व गुण विषयक एक ही स्मरण उत्पन्न होता है । इसके बाद अनुभव और स्मरण दोनों प्रकार की अपेक्षाबुद्धियों से उन आश्रयीभूत द्रव्यों में 'सौ नाम की संख्या उत्पन्न होती है। कथित सभी द्रव्य विषयक संस्कारों से उत्पन्न होनेवाली 'सौ' नाम की इस संख्या की सत्ता में प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, क्योंकि उन द्रव्यों में से अन्तिम द्रव्य एवं इन्द्रिय इन दोनों के संयोग से उत्पन्न ज्ञान के द्वारा ही वह गृहीत होता है। (प्र.) संख्येयों (द्रव्यों) के विनष्ट होने के बाद जोड़ कर जहां संख्या की प्रतीति "मैंने सौ कीड़ों को मारा' इत्यादि आकार की होती है, वहां 'सो' संख्या की उत्पत्ति किस प्रकार से होगी ? क्योंकि उसके आश्रय ही विनष्ट हो गये हैं। इस प्रश्न का उत्तर कोई इस प्रकार देते हैं, कि ऐसे स्थलों में 'सौ' संख्या की उत्पत्ति ही नहीं होती, अतः ऐसे स्थलों में सौ संख्या का व्यवहार रूपादि गुणों में संख्या के व्यवहार की तरह गौण है। कोई कहते हैं कि दोनों ही प्रकार के (जहाँ सौ संख्या का आश्रयीभूत द्रव्य हैं, एवं जहां उनका विनाश हो गया है) स्थलों में संख्या की उक्त प्रतीति समान रूप से होती है, अत: इन प्रतीतियों में से एक प्रतीति को मुख्य और दूसरी को गौण नहीं मान सकते, अतः उक्त स्थल में विनष्ट अथ च संस्कार के द्वारा समीप लायी गयी पिपीलिका ही उक्त सौ संख्या का आश्रय है। आकाशकुसुमादि की किसी भी काल में सत्ता नहीं है, अतः वे कभी किसी के भी कारण नहीं होते, विनष्ट पिपीलिकादि में तो केवल वर्तमानकाल का ही सम्बन्ध नहीं है, उनके स्वरूप के अस्तित्व का तो अभाव नहीं है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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