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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् २७७ न्यायकन्दली मित्यत्र का वार्ता ? नहि चक्षुर्गन्धविषयं, न च घ्राणं द्रव्यमादत्ते । अत एव न ताभ्यां सम्बन्धग्रहणम्, उभयसम्बन्धिग्रहणाधीनत्वात् सम्बन्धग्रहणस्य ।यथा संस्कारेन्द्रियजन्यं प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षमुभयकारणसामर्थ्यात्पूर्वापरकालविषयम्, एवं चक्षुर्घाणाम्यां सम्भूय जन्यमानमिदं कारणद्वयसामर्थ्यादुभयविषयं स्यादित्येके समर्थयन्ति । तदपि न साधीयः, निर्भागत्वात् । यदि ज्ञानं सभागं स्यात्तदा कश्चिदस्यांशो घ्राणेन जन्येत कश्चिच्चक्षुषत्युपपद्यते व्यवस्था, किन्त्विदमेकमखण्ड मुभाभ्यां जनितं यदि गन्धं द्रव्यं च गृह्णाति, तदा गन्धोऽपि चाक्षुषो द्रव्यमपि घ्राणगम्यं प्रसक्तम, तज्जनितज्ञानविषयत्वलक्षणत्वात्तदिन्द्रियग्राह्यतायाः। न चाणुत्वान्मनसो युगपदुभयेन्द्रियाधिष्ठानसम्भवः । तस्माद् प्राणेन गन्धे गृहीते पश्चात्तद्ग्रहणसहकारिणा चक्षुषा केवलविशेष्यालम्बनमेवेदं विशेष्यज्ञानं जन्यत इत्यकामेनाप्यभ्युपगन्तव्यम् । तथा च सत्यन्येषामपि विशेष्यज्ञानानामयं न्याय क्योंकि गन्ध का ग्रहण आँखों से नहीं होता, एवं प्राण में द्रव्य को ग्रहण करने की शक्ति नहीं है । अत एव सौरभ और चन्दन इन दोनों का ग्रहण भी इन दोनों इन्द्रियों से नहीं हो सकता, क्योंकि सम्बन्ध के प्रत्यक्ष के लिए उनके दोनों आश्रयों का प्रत्यक्ष आवश्यक है । कोई कहते हैं कि 'सुरभि चन्दनम्' यह एक ही ज्ञान चक्षु और घ्राण दोनों इन्द्रियों से होता है। इसका समर्थन इस प्रकार करते हैं कि जिस प्रकार (योऽहं घटमद्राक्षं सोऽहमिदानी स्मरामि ) इत्यादि आकार की प्रत्यभिज्ञारूप प्रत्यक्ष इन्द्रिय से उत्पन्न होने के कारण वर्तमान काल विषयक होता हैं, एवं संस्कार से उत्पन्न होने के कारण भूतकाल विषयक भी होता है, इस प्रकार 'सुरभि चन्दनम्' यह ज्ञान अलग अलग सामर्थ्य वाली चक्षु और घ्राण इन दोनों इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण द्रव्य एवं सौरभ दोनों विषयों का हो सकता है। किन्तु इस प्रकार का समर्थन संगत नहीं है, क्योंकि ज्ञान अखण्ड है, उसके अंश नहीं होते। यदि ज्ञान अंशों से युक्त होता तो यह कह सकते थे कि उसका एक अंश आँखों से उत्पन्न होता है तो दूसरा घ्राण से। अतः ज्ञान अगर अखण्ड है और उसकी उत्पत्ति दो इन्द्रियों से होती है, एवं सौरभ और द्रव्य दोनों उसके विषय हैं तो फिर यह मानना ही पड़ेगा कि गन्ध का ग्रहण भी आंख से होता है, एवं घ्राण से द्रव्य भी गृहीत होता है, क्योंकि जिस इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न ज्ञान से जिसका प्रतिभास होता है, वही उस इन्द्रिय का ग्राह्य विषय है । दूसरी बात यह है कि मन अणु है, अतः एक ही समय वह दो इन्द्रियों का अधिष्ठान नहीं हो सकता, अतः इच्छा न रहते हुए भी प्रकृत में आप को यही मानना पड़ेगा कि घ्राण के द्वारा केवल गन्ध का ग्रहण हो जाने के बाद उसके सहकारी चक्षु के द्वारा केवल विशेष्य विषयक ( चन्दन विषयक ) ज्ञान उत्पन्न होता है । इस प्रकार यही रीति अन्य विशेष्य ज्ञानों के लिए भी प्रयुक्त होती For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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