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प्रकरणम् 1
भाषानुवादसहितम्
२४९
प्रशस्तपादभाष्यम् शेषाणामाश्रयव्यापित्वम् ।
अपाकजरूपरसगन्धस्पर्शपरिमाणैकपृथक्त्वसासिद्धिकद्रवत्वगुरुत्वस्नेहानां यावद्रव्यभावित्वम् ।
शेषाणामयावदव्यभावित्वञ्चेति । अवशिष्ट सभी गुण अपने आश्रय के सभी अंशों में रहते हैं। __ अपाकज रूप, अपाकज रस, अपाकज गन्ध, अपाकज स्पर्श, परिमाण, एकत्व, एकपृथक्त्व, सांसिद्धिक द्रवत्व, गुरुत्व और स्नेह इन दश गुणों का 'यावद्रव्यभावित्व' साधर्म्य है।
शेष' अर्थात कथित अपाकज रूपादि से भिन्न सभी गुणों का 'अयावद्रव्यभावित्व' साधर्म्य है।
न्यायकन्दली शेषाणामाश्रयव्यापित्वम् । उक्तेभ्यो येऽन्ये ते शेषाः । तेषामाश्रयव्यापित्वं संयोगादिवदव्यापकं न भवतीत्यर्थः ।
अपाकजरूपादीनां यावद्दव्यभावित्वम् । यावदाश्रयद्रव्यं तावद्रूपादयो विद्यन्ते । पाकजरूपादयः सत्येवाश्रये नश्यन्तीत्यपाकजग्रहणम् ।
शेषाणामयावद्रव्यभावित्वम् । अपाकजरूपादिव्यतिरिक्ता गुणा यावद्व्यं न सन्ति, सत्येवाश्रये नश्यन्तीत्यर्थः ।
शेष सभी गुणों का आश्रयव्यापित्व' साधर्म्य है। ऊपर जितने भी गुण कहे गये हैं, उनसे भिन्न सभी गुण यहाँ शेष' शब्द से अभिप्रेत हैं। उन सबों का 'आश्रयव्यापित्व' ( साधर्म्य है ), अर्थात् वे संयोगादि गुणों की तरह अव्याप्यवृत्ति नहीं हैं ।
____ कथित अपाकज रूपादि गुणों का 'यावद्रव्यभावित्व' ( साधर्म्य है), अर्थात् जब तक आश्रयरूप द्रव्य रहते हैं, तब तक ये अपाकज रूपादि रहते हैं। इसमें 'अपाकज' पद का उपादान इस लिए किया गया है कि पाकज रूपादि आश्रय के रहते हुए ही नष्ट हो जाते हैं।
'शेष' गुणो का 'अयावद्व्यभावित्व' साधर्म्य है। अर्थात् उक्त अपाकज रूपादि से भिन्न जितने भी गुण हैं, वे तब तक नहीं रहते, जब तक उम के आय द्रव्य रहते हैं. किन्तु उनके रहते ही नष्ट हो जाते है ।
अव प्रत्येक गुण का असाधारण धर्म कहना है, अत: 'रूपादीनाम्' इत्यादि वाक्य लिखते हैं। रूपमादिर्येषाम्' इस व्युत्पत्ति से सिद्ध 'रूादि' शब्द से युक्त प्रकृत
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