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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १९ ) बोध होता है, और दूसरे से भारीपन और हलकापन का बोध होता है। इनमें पहिला भी दो प्रकार का है, एक दीर्घ और दूसरा ह्रस्व । दूसरे प्रकार का वह परिमाण है जिससे द्रव्य का भारीपन और हल्क पन प्रतीति हो। यह भी अणु और महत् भेद से दो प्रकार का है । इसकी भी नित्यता और अनित्यता अपने आश्रय की नित्यता और अनित्यता के अधीन है । अर्थात् नित्य द्रव्य में रहनेवाला परिमाण नित्य है और अनित्य द्रव्य में रहनेवाला परिमाण अनित्य है । अनित्यपरिमाण तीन कारणों से उत्पन्न होता है (१) अवयवों के परिमाण से (२) अवयवों की संख्या से और (३) ( अवयवों के प्रशिथिलसंयोगरूप )प्रचय से । दोनों कलापों के परिमाण से घट में परिमाण की उत्पत्ति होती है। किन्तु उसी परिणाम के तीन कलापों से जिस घट की उत्पत्ति होगी, उस घट का परिमाण दो कलापों से उत्पन्न घट के परिमाण से भिन्न होगा। इस विलक्षण परिमाण का कारण तीनों कपालों का परिमाण नहीं हो सकता, क्योंकि इन तीनों कपालों का परिमाण भी पहिले घट के उत्पादक दोनों कपालों के समान ही है। अतः उक्त तीन कपालों से उत्पन्न घट में जो उक्त दोनों कालों से उत्पन्न घट के परिमाण से विलक्षण परिमाण उपलब्ध होता है, उसका कारण कपालों की त्रित्व संख्या ही है। अतः संख्या भी परिमाण का कारण है । इस प्रकार संख्या में स्वोकृत परिमाण की कारणता के अनुसार ही अणु परिमाणों में किसी भी वस्तु की कारणता का अस्वीकार करना वैशेषिकों के लिए संभव होता है। वैशेषिकों के सिद्धान्त के अनुसार अणुपरिमाण किसी के भी कारण नहीं हैं। परमाणुओं के परिमाण और द्वयणुकों के परिमाण ही अणुपरिमाण है। ये अगर कारण होंगे तो परमाणु के परिमाण द्वयगुणों के परिमाण के कारण होंगे, और द्वयणुकों के परिमाण त्र्यसरेणु के परिमाण के कारण होंगे। किन्तु सो संभव नहीं है, क्योंकि परिमाणों में यह नियम देखा जाता है कि वे अपने समान जाति के अपने से उत्कृष्ट परिमाण को ही उत्पन्न करते है। कपालों में महत् परिमाण हैं उसके परिमाणों से घट का जो परिमाण उत्पन्न होता है वह कपाल परिमाण से महत्तर होता है। अर्थात् कपाल परिमाण में रहनेवाली महत्त्व जाति भी उसमें है और कपाल परिमाण से वह बड़ा भी है। इस नियम के अनुसार परमाणुओं के परिमाणों से द्वथणुकों के परिमाणों की उत्पत्ति मानने से द्वयगुणक के परिमाणों में अणुत्व जाति के साथ साथ परमाणुओं के परिणाम से न्यूनता भी माननी पड़ेगी । क्योंकि जिस प्रकार महत्परिमाण के उत्पन्न होववाले परिमाण महत्तर होते हैं उसी प्रकार अणुपरिमाण से उत्पन्न होनवाले परिमाण अणुतर होंगे। इसी प्रकार द्वथणुकों में रहनेवाले अणुपरिमाणों से अगर त्र्यसरेणु परिमाण की उत्पत्ति माने तो वह द्वयणुक के परिमाण से छोटा होगा । फलतः त्यसरेणु का प्रत्यक्ष न हो सकेगा। जिससे आगे की प्रत्यक्ष धारा ही रुक जाएगी। जो जगत् के अप्रत्यक्ष में परिणत हो जाएगी । तस्मात् द्वयणुक परिमाण के उत्पादक दोनों परमाणुओं की द्वित्व संख्या ही है, एवं तीन द्वयणुकों से उत्पन्न होनवाले त्र्यसरेणु के परिमाण का उसके उपादानभूत तीनों द्वयणुकों की त्रित्व संख्या ही कारण है। घटादि के विशेष प्रकार के परिमाणों के लिए भी संख्या की अपेक्षा का उपपादन कर चुके हैं। अतः जन्य अणुपरिमाणों के लिए वह कोई नवीन कल्पना भी नहीं है । For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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