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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये मन:
प्रशस्तपादमाष्यम् करणभावात्परार्थम् । गणवत्त्वाद् द्रव्यम् । प्रयत्नादृष्टपरिग्रहवशादाशुसञ्चारि चेति ।
इति प्रशस्तपादभाष्ये द्रव्यपदार्थः ॥ आत्मा की तरह मन को भी शरीर का अधिष्ठाता मानना पड़ेगा। चूंकि यह करण है अत: दूसरों के उपभोग का ही साधन (पदार्थ) है। चूंकि इसमें गुण हैं, अतः यह द्रव्य है । प्रयत्न और अदृष्ट के कारण यह तीब्र गतिवाला है।
न्यायकन्दली पुनरेतदुक्तम् । अज्ञत्वे सिद्धे सत्याह-करणभावात् परार्थमिति । परस्योपभोगसाधनमित्यर्थः । गुणवत्त्वाद् द्रव्यं पृथिव्यादिवत् । प्रयत्नादृष्टपरिग्रहवशादाशुसञ्चारि चेति द्रष्टव्यम् । इच्छाद्वेषपूर्वकेण जीवनपूर्वकेण च प्रयत्नेन परिगृहीतं स्थानात् स्थानान्तरमाशु सञ्चरति, तथा अदृष्टेन परिगृहीतं मरणाच्छरीरान्तरमाशु सञ्चरतीति द्रष्टव्यम् । इतिशब्दः परिसमाप्तौ ।
विशुद्धविविधन्यायमौक्तिकप्रकराकरः ।
सेव्यतां द्रव्यजलधिः स्फुटसिद्धान्तविद्रुमः ॥ इति भट्टश्रीश्रीधरकृतौ पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां
__ द्रव्यपदार्थः समाप्तः ॥
चैतन्य का निषेध कर चुके हैं ( देखिये आत्मनिरूपण ) तथापि प्रसङ्ग आने के कारण उसे फिर से दुहराया है। अज्ञत्व के सिद्ध हो जाने के बाद कहते हैं कि यतः वह करण है, अतः परार्थ' है, अर्थात् दूसरों के उपभोग का साधन मात्र है। चूंकि उसमें गुण है, अतः पृथिवी की तरह वह द्रव्य है । "आत्मा के प्रयत्न और अदृष्ट से शीघ्र चलना उसका स्वभाव है" अर्थात् जिस प्रकार से इच्छा, द्वेष और जीवनयोनि यत्न इन तीनों के साथ सम्बद्ध होने के कारण मन क्षिप्रगति से एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है, वैसे ही यह अदृष्ट से प्रेरित होकर मरण के बाद दूसरे शरीर में भी शीघ्र चला जाता है । यह 'इति' शब्द समाप्ति का बोधक है ।
___ अनेक प्रकार के न्याय रूपी विशुद्ध मोतियों की खान निश्चित सिद्धान्त रूपी मूंगों से युक्त 'द्रव्य समुद्र' (द्रव्य निरूपण ) का (विद्वान् लोग ) सेवन करें।
भट्ट श्रीश्रीषर द्वारा रचित पदार्थों की बोधिका न्यायकन्दली
नाम की टीका में द्रव्य का निरूपण समाप्त हुआ।
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