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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् सिद्धम्, Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रशस्तपादभाष्यम् पृथकत्वमप्यत एव ! तथा चात्मेतिवचनात् परममहत्परिमाणम । चाहिए । यतः आत्मा में संख्या है, अतः पृथक्त्व भी अवश्य ही है । वैभव सूत्र ( ७।१।२२ ) में प्रयुक्त 'तथा चात्मा' इस उक्ति से आत्मा में परममहत्परिमाण गुण का रहना भी महर्षि का अभिप्रेत समझना चाहिए । यतः सुखादि न्यायकन्दली अभेदश्रुतयस्तु गौणार्था इति दिक् । न च नानात्मपक्षे सर्वेषां क्रमेण मुक्तावन्ते संसारोच्छेदः, अपरिमितानामन्त्यन्यूनातिरिक्तत्वायोगात् । यथाहुवर्तिककारमिश्रा: २१३ अत एव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु सन्ततम् । ब्रह्माण्डो जीवानामनन्तत्वादशून्यता ॥ अन्त्यन्यूनातिरिक्तत्वे पूज्यते परिमाणवत् । वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसम्भवः ॥ इति । पृथक्त्वमप्यत एव । "नानात्मानो व्यवस्थातः” इति वचनादेव पृथक्त्वं सङ्ख्यानुविधायित्वात्पृथक्त्वस्येत्यभिप्रायः । तथा चात्मेतिवचनात्परममहत्परिमाणमिति । “विभववान् महानाकाशस्तथा चात्मा" इति सूत्रकारवचनादाकाशवदात्मनोऽपि विभुत्वात् परममहत्परिमाणं सिद्धमित्यर्थः । विभुत्वश्वात्मनो वह्नेरूर्ध्वज्वलनाद् वायोस्तिर्यग्गमनादवगतम् । ते ह्यदृष्ट व्यवस्था की उक्त अनुपपत्ति रहेगी ही, अतः "तीनात्मानो व्यवस्थातः " सूत्रकार की यह उक्ति ठीक है । जीव और ब्रह्म में अभेद को प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियाँ गौण हैं । जीव को नाना मान लेने से इसका भी समाधान हो जाता है कि 'सभी आत्माओं के मुक्त हो जाने पर अन्त में संसार का ही लोप हो जायगा, क्योंकि 'अपरिमित' अर्थात् अनन्त वस्तुओं में अन्तिम, न्यूनत्व, अधिकत्व प्रभृति की चर्चा ही नहीं उठती है । जैसा वांतिककार मिश्र ने कहा है कि यतः जीव अनन्त हैं, अतः बराबर ज्ञानी जीवों को मुक्त होते रहने पर भी यह ससार जीवों से शून्य नहीं होता है । अन्तिम, न्यून, और अधिक ये सभी बातें परिमित अपरिमत वस्तुओं में ये सभी बातें असम्भव हैं । वस्तुओं की हैं, For Private And Personal समझनी चाहिए । आत्मा में पृथकूत्व नाम के गुण की भी सिद्धि संख्या रहेगी वहाँ पर पृथक्त्व भी अवश्य ही रहेगा सूत्र में प्रयुक्त सूत्रकार की इस उक्ति से विभुत्व हेतु से तरह परममहत्परिमाण की सिद्धि होती है । आत्मा का विभुत्व वायु की कुटिल गति से समझते हैं, क्योंकि वे दोनों ही क्योंकि जहाँ पर " तथा चात्मा" (७|१|२२) वैभव आत्मा में भी आकाश की आग की ऊर्ध्वगति और अदृष्टकृत हैं । उन गतियों
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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