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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् २११ न्यायकन्दली तथात्मकत्वेऽपि देहभेदादनुभवादिव्यवस्थेति चेद् ? विषमोऽयमुपन्यासः, प्रतिपुरुषं व्यवस्थिताभ्यां धर्माधर्माभ्यामुपगृहीतानां शब्दोपलब्धिहेतूनां कर्णशष्कुलीनां व्यवस्थानाद्युक्ता तदधिष्ठाननियमेन शब्दग्रहणव्यवस्था । ऐकात्म्ये तु धमधिर्मयोरव्यवस्थानाच्छरीरव्यवस्थाभावे कि कृता सुखदु:खोत्पत्तिव्यवस्था ? मनस्सम्बन्धस्यापि साधारणत्वात् । यस्य तु नानात्मानः, तस्य सर्वेषामात्मनां सर्वगतत्वेन सर्वशरीरसम्बन्धेऽपि न साधारणो भोगः । यस्य कर्मणा यच्छरीरमारब्धं तस्यैव तदुपभोगायतनं न सर्वस्य, कर्मापि यस्य शरीरेण तस्येव तद्भवति नापरस्य, एवं शरीरान्तरनियमः कान्तरनियमादित्यनादिः । अथ मतम्, एकत्वेऽपि परमात्मनो जीवात्मनां परस्परभेदाद् व्यवस्थेति तदसत्, परमात्मनो भेदेऽद्वैतसिद्धान्तक्षतिः, “अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि' इति जीवपरमात्मनोस्तादात्म्यश्रुतिविरोधाच्च । अविद्याकृतो जीवपरमात्मनोभेंद इति चेत् ? कस्येयमविद्या ? किं ब्रह्मणः ? किमुत जीवानाम ? के लिए आत्मा को नाना मानने की आवश्यकता नहीं है ) । ( उ०) प्रत्येक पुरुष के शब्दोपलब्धि के अरष्ट से कर्णशष्कुली रूप कारण की कल्पना की गयी है। अतः यह ठीक है कि उसी कर्णशष्कुली रूप उपाधि से युक्त आकाश (श्रवणेन्द्रिय ) से ही शब्द का प्रत्यक्ष होता है, औरों से नहीं, किन्तु आत्मा को एक मान लेने से धर्म और अधर्म की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी, फिर सुखदुःखादि की भी व्यस्था नहीं होगी, फिर सुखदुःखादि का भी नियम नहीं रहेगा, क्योंकि मन का सम्बन्ध तो सभी देहों में समान ही है, अतः उक्त आक्षेप असङ्गत है। यद्यपि जिनके मत में आत्माएँ अनेक हैं, उनके मत में भी ( व्यापक होने के कारण प्रत्येक ) आत्मा सभी मूतं द्रव्यों के साथ सम्बद्ध है, फिर भी भोग के सर्वसाधारणत्व की आपत्ति नहीं होती है, क्योंकि जिस आत्मा के कर्म ( अदृष्ट ) से जो शरीर उत्पन्न होगा वह शरीर उसी आत्मा के भोग का 'आयतन' होगा, दूसरी आत्माओं के भोग का नहीं, एवं जिस आत्मा के शरीर से जो कर्म ( अदृष्ट ) उत्पन्न होगा वह कर्म उसी आत्मा का होगा और आत्माओं का नहीं । इसी प्रकार अन्य शरीर और अन्य कर्मों की भी व्यवस्था समझनी चाहिए। (प्र.) जीवात्मा और परमात्मा ये दो मान लेने से ही ( शरीर भेद से अनन्त जीव न मानने पर भी) सभी व्यवस्थायें ठीक हो जाती हैं ? ( उ०) यह मान लेने पर भी अद्वैत सिद्धान्त तो विघटित हो ही जायगा । एवं 'अनेन जीवेन' इत्यादि श्रुतियाँ भी विरुद्ध हो जायँगी । (प्र. ) जीव और ईश्वर वास्तव में तो अभिन्न ही हैं, किन्तु 'अविद्या' से अर्थात् अज्ञान से दोनों में भेद की कल्पना की जाती है । ( उ०) यह अविद्या किसकी ? जीव की ? या ब्रह्म की ? ब्रह्म की तो For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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