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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २०३ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली वता प्रेय॑ मनः, अभिमतविषयसम्बन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्दारकहस्तगतपेलकवत् । वायवादिप्रेरितस्यानभिमतेनापि सम्बन्धो भवति । नयनविषयेति । नयनविषयस्य रूपस्यालोचनाद् ग्रहणानन्तरं रसस्यानुस्मरणकमेण रसनेन्द्रियान्तरविकारो दृश्यते, तस्मादुभयोर्गवाक्षयोरन्तःप्रेक्षक इव द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यां रूपरसयोर्दी कश्चिदेकोऽनुमीयते। किमुक्तं स्यात् ? कस्यचिदिष्टफलस्य रूपं दृष्ट्वा तत्सचहरितस्य पूर्वानुभूतस्य रसस्य स्मरणात्तत्रेच्छा भवति, ततोऽपि प्रयत्न आत्ममनस्संयोगापेक्षो रसनेन्द्रियविनियां करोति। सा दन्तोदकसंप्लवानुमिता रसनेन्द्रियविक्रिया इन्द्रियचैतन्ये न स्यात्, प्रत्येकं नियताभ्यां चलरसनाभ्यां रूपरसयोः साहचर्यप्रतीतौ रूपदर्शनेन रसस्मृत्यभावात् । अस्ति चायं विकारैः तस्मादिन्द्रियव्यतिरिक्तः कोऽप्युभयदर्शी यो रूपं दृष्ट्वा रसस्य स्मरति । शरीरमेवोभयशि भविष्यतीति चेन्न, बालवृद्धशरीरयोः परिमाणभेदेनान्यत्वे गोली चलाने वाले प्रयत्न से युक्त उक्त बालक का अनुमान होता है। अतः मन प्रयत्न से युक्त किसी व्यक्ति के द्वारा प्रेरित होता है, क्योंकि वह इच्छित विषय के सम्बन्ध का कारण क्रिया का आश्रय है, जैसे बालक के हाथ की लाह की गोली । वायु प्रभृति से प्रेरित वस्तुओं का सम्बन्ध अनभीष्ट विषयों के साथ भी होता है। "नयनविषयेति" चक्षु से देखे जाने वाले रूप के आलोचन अर्थात् ज्ञान के बाद रस के स्मरणक्रम से रसनेन्द्रिय में विकार ( मुंह में पानी आना ) देखा जाता है, उसी से दो गवाक्षों के द्वारा एक देखने वाले की तरह दो इन्द्रियों से देखने वाले एक ज्ञाता का अनुमान करते हैं। इससे यही तात्पर्य क्या निकला ? कि किसी अभीष्ट फल के रूप को देखकर उस रूप के साथ रहनेवाले पूर्वानुभूत रस की स्मृति से उस रस के आस्वादन की इच्छा होता है। उस इच्छा से प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। इस प्रयत्न, (आत्मा और मन के संयोग) से रसनेन्द्रिय में विकृति हो जाती है । इन्द्रिय को अगर चेतन मानें तो मुंह के पानी से अनुमित रसनेन्द्रिय की विकृति की उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि इन्द्रियों के विषय नियमित हैं। चक्षु से रूप का ही ज्ञान होता है रसादि का नहीं, एवं रसना से रस का ही ज्ञान हो सकता है रूप का नहीं। अतः रूप और रस के सामानाधिकरण्य की प्रतीति के बाद जो रूप को देखने से रस की स्मृति होती है, वह नहीं हो सकेगी, और वह विकार है अवश्य | अतः इन्द्रियादि से भिन्न कोई दोनों का अभिज्ञ एक व्यक्ति अवश्य है जो रूप को देखकर रस का स्मरण करता है। (प्र) रूप को देखनेवाला और रस को स्मरण करनेवाला शरीर ही क्यों नहीं है ? ( उ० ) एक ही व्यक्ति की बाल्यावस्था का शरीर और वृद्ध अवस्था का शरीर यत: भिन्न हैं, दोनों भिन्न परिमाणों के हैं। (ऐसी स्थिति में शरीर को ही अनुभविता और स्मर्त्ता दोनों For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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