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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मकरणम् ] भाषानुवादसहितम् २०१ न्यायकन्दली थास्य विकृतवाय्वसम्भवात् । भस्त्राध्मापयितेव दृष्टान्तः, शरीरं प्रयत्नवदधिष्ठितमिच्छापूर्वकविकृतवाय्वाश्रयत्वाद् भस्त्रावत् । शरीरपरिगृहीतेत्यनेनेच्छापूर्वकत्वं दर्शितम्, तेन हि द्विवायुकादिभिर्नानकान्तिकम् । निमेषोन्मेषकर्मणा नियतेन दारुयन्त्रप्रयोक्तेवेति । अक्षिपक्ष्मणोः संयोगनिमित्तं कर्म निमेषः, विभागार्थ कर्मोन्मेषः । तेन कर्मणा दारुयन्त्रप्रयोक्तेव विग्रहस्य प्रयत्नवानधिष्ठाता अनुमीयते। वायुवशेनापि दारुयन्त्रस्य निमेषोन्मेषौ स्याताम, तन्निवत्त्यर्थं नियतेनेति। अनेनेच्छाधीनत्वं कथयति । शरीरं प्रयत्नवदधिष्ठितमिच्छाधीननिमेषोन्मेषवदवयवयोगित्वाद् दारुयन्त्रवत् । जीवनलिङ्गकमनुमानं कथयतिदेहस्येति । वृद्धिः प्रसिद्धव । क्षतस्य भग्नस्य च संरोहणं पुनः सङ्घटनं तयोनिमित्तत्वाद् गृहपतिरिव प्रयत्नवानधिष्ठाता अनुमीयते। शरीरस्य वृद्धिक्षतसंरोहणं प्रयत्नवता कृतं वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणत्वाद् गृहवृद्धिक्षतभग्नसंरोहणवत् । है, अतः इस शरीर रूप मूर्ति के प्रयत्नशील अधिष्ठाता का अनुमान करते हैं जो उन दोनों वायुओं को विपरीत गति से चलने के लिए प्रेरित करते हैं। अन्यथा उक्त वायु में उक्त विपरीत गति की सम्भावना नहीं है । 'भस्त्राध्मापयितेव' इस वाक्य से उसी अनुमान का दृष्टान्त कहा गया है। अर्थात् जैसे कि भाथी की वायु से प्रयत्नशील किसी चलाने वाले का अनुमान होता है, इसी प्रकार शरीर का भी कोई प्रयत्न से युक्त अधिष्ठाता अवश्य है, क्योंकि इच्छा जनित विपरीत गति से युक्त वायु का वह (शरीर) आश्रय है जैसे कि भाथी। 'शरीर-परिगृहीत' इत्यादि से यह दिखलाया गया है कि शरीर में रहने वाली वायु की उक्त विपरीत गति इच्छा से उत्पन्न होती है। अतः विपरीत दशाओं में बहनेवाली दो वायुओं की विपरीत गति में व्यभिचार नहीं है। शरीर के किसी प्रयत्नशील अधिष्ठाता का अनुमान कठपुतली को नचाने वाले की तरह 'निमेष' एवं 'उन्मेष रूप क्रियाओं से भी होता है। जिस क्रिया से आँख के दोनों पलकों का संयोग उत्पन्न हो उसे 'निमेष' एवं जिस क्रिया से उन्हीं दोनों पलकों का विभाग उत्पन्न हो उसे 'उन्मेष' कहते हैं। उन दोनों क्रियाओं से कठपुतली को नचाने वाले की तरह शरीर रूप मूर्ति के प्रयत्नशील अधिष्ठाता का अनुमान होता है। वाय से कठपुतली में भी निमेष और उन्मेष हो सकते हैं अतः 'नियतेन' यह पद दिया है। इससे यह लाभ होता है कि निमेष और उन्मेष इच्छा से ही उत्पन्न होते हैं। फलत: (यह अनुमान होता है कि) शरीर का कोई प्रयत्नविशिष्ट अधिष्ठाता है, क्योंकि उसमें इच्छाजनित निमेष और उन्मेष क्रियाओं से युक्त अवयवों का सम्बन्ध है, जैसे कि कठपुतली में। 'देहस्य' इत्यादि से 'जीवन' हेतुक अनुमान दिखलाया गया है। 'वृद्धि' शब्द का (बढ़ना) अर्थ प्रसिद्ध है। घाव और टूटे हुए अङ्गों का 'संरोहण' अर्थात् पहिले की तरह होना इन दोनों के कारण रूप में भी घर के मालिक की तरह शरीर (रूप घर) के प्रयत्नशील अधिष्ठाता का अनुमान होता है। शरीर की वृद्धि, उसके घाव और टूटे हुए अङ्गों का पुनः सङ्घटन ये सभी २३ For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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