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सम्भव नहीं है। क्योंकि इस स्मरण का आश्रय (समवायिकारण) चक्षु रूप इन्द्रिय सर्वदा के लिए नष्ट हो चुका है। अतः यह मानना पड़ता है कि इन्द्रियों से होनेवाले ज्ञानों का आश्रय कोई और ही द्रव्य है, जो इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी विद्यमान रहता है । वही आत्मा है।
इन्द्रियात्मवाद के पक्ष में कोई कहते हैं कि ये सभी आपत्तियाँ इन्द्रियों के अनित्य होने के कारण उठती हैं। श्रोत्रेन्द्रिय आकाश रूप होने पर भी पूर्ण नित्य नहीं है, क्योंकि निरुपाधिक आकाश इन्द्रिय नहीं है। कर्णशष्कुली प्रभृति उपाधि से युक्त आकाश ही इन्द्रिय है, अतः उपाधि में दोष आ जाने से स्वरूपतः आकाश रूप श्रोत्र का नाश न होने पर भी उसका इन्द्रियत्व नष्ट हो जाता है । अतः श्रीनेन्द्रिय भी फलतः अनित्य ही है। ऐसी स्थिति में मन रूप इन्द्रिय को आत्मा मान लेने से उक्त सभी आपत्तियाँ हट जाती हैं। क्योंकि मन नित्य है एवं सभी ज्ञानों में मन की अपेक्षा भी है ही। तस्मात् सभी ज्ञानों के प्रति मन को ही समवायिकारण मान लें । तद्भिन्न आत्मा नाम के किसी द्रव्य को मानने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रसङ्ग में सिद्धान्तियों का कहना है कि मन की सिद्धि जिस हेतु से की जाती है, वही उसको अतीन्द्रिय भी सिद्ध करता है। मन को अगर विभु मान लिया जाय तो फिर उसका कुछ भी प्रयोजन नहीं रह जाता। क्योंकि एक समय एक आश्रय में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं होती है। किन्तु चक्षुघ्राणादि इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ एक ही समय सम्बन्ध हो सकते हैं। ज्ञान के समवायिकारण को जो लोग विभु मानते हैं उनके मत में एक ही साथ अनेक विषयों के साथ उसका सम्बन्ध होना कोई बड़ी बात नहीं है। अतः मध्यवर्ती एक ऐसे इन्द्रिय की कल्पना करनी पड़ती है जो अपनी सूक्ष्मता के कारण एक समय एक ही बहिरिन्द्रिय के साथ सम्बद्ध हो सके वही इन्द्रिय 'मन' है । फलतः जिस बहिरिन्द्रिय के साथ जिस समय मन रूप इन्द्रिय का सम्बन्ध रहेगा, उस समय उसी बहिरिन्द्रिय के विषय का ग्रहण होगा, और इन्द्रियों के विषयों का नहीं । अगर मन को विभु मान लें तो फिर एक ही समय अनेक बहिरिन्द्रियों के साथ वह सम्बद्ध हो सकता है। अतः एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों की ( ज्ञानयोगपद्य की) आपत्ति जैसी की तैसी रहेगी। अतः मन की सत्ता के साधक प्रमाण (धर्मिग्राहक प्रमाण ) के द्वारा ही मन का अणुत्व भी सिद्ध है । मन के इस अणुत्व के कारण ही ज्ञान का आश्रय मन नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मान लेने पर ज्ञान-सुखादि का प्रत्यक्ष न हो सकेगा। क्योंकि गुणप्रत्यक्ष के प्रति आश्रय का महत्त्व भी कारण है चूँकि मन अणु है, अतः उसमें रहनेवाले ज्ञान-सुखादि का प्रत्यक्ष संभव नहीं .ोगा । तस्मात् मन भी आत्मा नहीं है । अतः पृथिव्यादि आठों द्रव्यों से अतिरिक्त आत्मा नाम का एक स्वतन्त्र द्रव्य मानना आवश्यक है।
यह आत्मा ईश्वर और जीव भेद से दो प्रकार का है। ईश्वर एक ही है और सर्वज्ञत्वादि गुणों से विभूषित है। जीव अदृष्टादि गुणों के द्वारा बद्ध है और प्रत्येक शरीर में अलग अलग होने के कारण अनन्त है। मन रूप नवम द्रव्य के प्रसङ्ग में जानने योग्य सभी बातें आत्मनिरूपण के प्रसङ्ग में अधिकतर कह दी गयी हैं।
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