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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्ये आकाश न्यायकन्दली तस्याभावात्, नापि भूतले, अन्यधर्मत्वात् । कथं तहि नियतदेशः प्रतीयते ? प्रतियोगिनियमात् । अयमस्य स्वभावो यत् संयुक्तप्रतिषेधे संयुक्तवत् प्रतिभाति, समवेतप्रतिषेधे समवेतवत् प्रतिभाति । विशेषणमपीत्थमेव, न पुनरस्य संयोगसमवायौ, तयोर्भावधर्मत्वात् । तदेवं सिद्धोऽभावो भावविरोधी नास्ति बुद्धिवेद्योऽर्थः, यत्कृतो दहनतुहिनयोरपि विरोधः। दहनाभावस्तुहिने तुहिनाभावश्च दहने इत्यनयोविरोधो न स्वरूपेण विविध्यन्तरविरोधाभावात् । यच्च ध्रुवभावित्वादभावस्य हेत्वन्तरानपेक्षेत्युक्तम्, तदपि सवितुरुदयास्तमयाभ्यामनैकान्तिकम्, तयोरनपेक्षत्वे हि कालभेदो न स्यात् । एकसामग्रीप्रतिबन्धेऽपि स एव दोषः। नियतो हि वाससि रागहेतुनियतकालश्च तस्य तत्कालासन्निधिमात्रेण रागस्यानुत्पादः सिद्धयति अनन्तास्तु विनाशहेतवो नियतकालाश्च वह उसका अभाव ही है। भूतल भी उसका आधार नहीं है. क्योंकि वह दूसरे का धर्म है। इसका यह भी स्वभाव है कि वह जहाँ किसी वस्तु में संयोग सम्बन्ध से किसी भाव के प्रतिषेध का स्वरूप होता है वहाँ उस संयुक्त भाव की तरह प्रतीत होता है एवं जहाँ किसी वस्तु में समवाय सम्बन्ध से किसी वस्तु के प्रतिषेध-स्वरूप होता है वहीं उस समवेत वस्तु की तरह प्रतीत होता है। प्रतियोगियों में रहने वाले संयोगादि के अनुसार ही वह विशेषण भी होता है। अभाव में स्वतः संयोग या समवाय नहीं है, क्योंकि ये दोनों ही भाव के धर्म हैं। अतः अभाव नाम का एक स्वतन्त्र पदार्थ है और वह भाव पदार्थों का विरोधी है जो 'नास्ति' प्रभृति शब्दों से प्रतीत होता है। जिससे कि वह्नि और पाला में विरोध है क्योंकि वह्नि में पाले का अभाव है और पाले में वह्नि का अभाव है। यही उन दोनों में विरोध है। स्वतन्त्र रूप से सिद्ध एक भाव का स्वतन्त्र रूप से सिद्ध दूसरे भाव के साथ विरोध का कोई दूसरा प्रकार नहीं है। यह जो आप ने कहा कि (प्र०) अभाव यत: 'ध्रुव भावी' है, अतः उसे भाव के कारणों से अतिरिक्त किसी कारण की अपेक्षा नहीं है' (उ०) आपका यह 'ध्रुव भावित्व' हेतु भी सूर्य के उदय और अस्त में नहीं देखा जाता है। वे दोनों अगर विभिन्न हेतुओं की अपेक्षा न रक्खें तो फिर वे दोनों विभिन्नकालिक भी न होंगे उदय और अस्त दोनों को आपत्ति एक ही क्षण में होगी। अगर एक की उत्पादक सामग्री से दूसरे का प्रतिरोध मानें तो फिर वही (ध्रुवभावित्वानुपपत्ति की) आपत्ति होगी। वस्त्र के रङ्ग के काल और हेतु दोनों ही नियत हैं, अतः उस नियत काल का भी सांनिध्य न रहने के कारण वस्त्र में राग के अनुत्पाद की सिद्धि होती है, किन्तु भावों के विनाश के काल नियत होने पर भी उसके हेतु अनन्त हैं। अत: सर्वदा सभी For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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