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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् १७५ प्रशस्तपादभाष्यम् शेषादात्मकार्यत्वात्तेनात्मा समधिगम्यते । है ( अा: कर्ता नहीं हो सकता ) । परिशेषानुमान के द्वारा यतः ज्ञान आत्मा रूप कारण का कार्य है, अतः ज्ञान रूप कार्य से आत्मा रूप कारण को समझते हैं। न्यायकन्दली करणभावाच्चेति । मनश्चेतनं न भवति करणत्वाद् घटादिवदिति । असिद्धं मनसः करणत्वम् कर्तृत्वाभ्युपगमादिति चेत् ? मनसः कर्तृत्वे रूपादिप्रतीतौ चक्षुरादिवत् सुखादिप्रतीतौ करणान्तरं मृग्य, क्रियायाः करणमन्तरेणानुपजननात् । तथा सति च सज्ञाभेदमात्रम्, कर्तु:करणस्य चोभयोरपि सिद्धत्वात् ।। ___ इतोऽप्यचेतनं मनो मूर्त्तत्वाल्लोष्टवत् । यदि शरीरेन्द्रियमनसां गुणो ज्ञानं न भवति, तथाप्यात्मसिद्धौ किमायातं तत्राह--परिशेषादिति। ज्ञानं तावत् कार्य्यत्वात् कस्यचित् समवायिकरणस्य कार्यम्, शरीरेन्द्रियमनसाञ्च तदाश्रयत्वं प्रतिषिद्धम् । न चान्येषु वक्ष्यमाणेन न्यायेन ज्ञानकारणत्वं प्रति शक्तिरस्ति, अतः परिशेषादात्मकायं ज्ञानम् । आत्मकार्यत्वात्तेन ज्ञानेनात्मा समधिगम्यत इत्युपसंहारः। ननु सर्वमेतदसम्बद्धम्, क्षणिकत्वेनाश्रयाश्रयिभावाभावात् । तथा हि'स्वयं करणभावाच्च' इस वाक्य से कहते हैं। मन चेतन नहीं है, क्योंकि स्वयं करण हैं, जैसे कि घटादि । (प्र. ) मैंने तो मन को कर्ता मान लिया है फिर उसके करणत्व की चर्चा कैसी ? (उ०) मन को अगर कर्ता मान लें तो फिर जैसे रूपादिज्ञान के चक्षुरादि करण हैं, वैसे ही सुखादि ज्ञान के लिए भी कोई करण खोजना पड़ेगा। क्योंकि करण के बिना क्रिया की उत्पत्ति ही असम्भावित है। तब फिर नाम का ही विवाद रह जाता है, क्योंकि सुखादि प्रतीति के कर्ता और करण दोनों ही सिद्ध हो चुके हैं । मन चेतन नहीं है, क्योंकि वह मूर्त है, जैसे कि ढेला, इस प्रकार मूर्त्तत्व हेतु से भी समझते हैं कि मन चेतन नहीं है । (प्र०) 'ज्ञान शरीर, इन्द्रिय एवं मन इन तीनों में से किसी का भी गुण नहीं है, यह सिद्ध हो जाने पर आत्मा की सिद्धि में क्या उपकार हुआ ? इसी प्रश्न का उत्तर 'परिशेषात्' इत्यादि से देते हैं । यतः ज्ञान (समवेत ) कार्य है, अत: अवश्य ही उसका कोई समवायिकारण है | यह सिद्ध हो चुका है कि शरीर, इन्द्रिय और मन ये तीनों समवाय सम्बन्ध से उसके आश्रय नहीं हैं | आगे कही जाने वाली युक्तियों से और भी किसी वस्तु में ज्ञान (समवायि) कारणत्व रूप शक्ति सम्भव नहीं है, अत: परिशेषानुमान से यह समझते हैं कि ज्ञान आत्मा रूप समवायिकारण का ही कार्य है । यही प्रकृत विषय का उपसंहार है। (प्र०) किन्तु ये सभी बातें असम्बद्ध हैं, क्योंकि संसार को सभी वस्तुएँ क्षणिकर १. बौद्धों का कहना है कि 'बीजों में अकुरों को जन्म देने का सामर्थ्य For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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