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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये दिक् प्रशस्तपादभाष्यम् लोकसंव्यवहारार्थ मेरुं प्रदक्षिणमावर्त्तमानस्य भगवतः सवितुर्ये संयोगविशेषा लोकपालपरिगृहीतदिक्प्रदेशानामन्वर्थाः प्राच्यादिभेदेन दशविधाः संज्ञाः कृताः, अतो भक्त्या दश दिशः सिद्धाः । तासामेव देवतापरिग्रहात् पुनर्देश मेरु की प्रदक्षिण परिक्रमा करते हुए भगवान् सूर्य के जो संयोग विशेष उनका ही लोकपालों से अधिकृत प्रदेशों का योग के द्वारा बोध करानेवाले प्राची प्रभृति दश नाम महर्षियों ने बनाये हैं। अत. गौणवृत्ति से दश दिशाओं का व्यवहार होता है। उन्हीं दिशाओं के (१) माहेन्द्री (२) वैश्वानरी न्यायकन्दली स्थिते महर्षिभिः प्राच्यादिभेदेन दशविधाः सज्ञाः कृताः । कीदृश्यस्ताः ? अन्वर्थाः, अनुगतोऽर्थो यासामिति ता अन्वर्थाः। केषामर्थस्तास्वनुगतः ? लोकपालेरिन्द्रादिभिः परिगृहीतानां दिक्प्रदेशानाम् । सवितुर्ये संयोगविभागास्तेषामित्यध्याहारः । तथा हि-प्रथममस्यामञ्चति सवितेति प्राची। अवागञ्चतीति अवाची । प्रत्यगञ्चतीति प्रतीची। उदगञ्चतीति उदीची। कि विशिष्टस्य सवितुः ? मेरुं प्रदक्षिणमावर्त्तमानस्य, मेरुं प्रदक्षिणं परिभ्रमतः । किमर्थं सज्ञाः कृताः? श्रुतिश्च स्मृतिश्च लोकश्च तेषां सम्यग् व्यवहारार्थम् । श्रौतो पर भी महषियों ने उसकी अन्वर्थ दश संज्ञायें बनाया हैं। 'अनुगतोऽयों यासाम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस संज्ञा का जो यौगिक अर्थ हो, उस वस्तु की वही अन्वर्थ संज्ञा है। (प्र०) किनके अर्थ उन संज्ञाओं में अनुगत हैं ? इस प्रश्न के समाधान के लिए "इन्द्रादि लोकपालो को अधिकृत दिशाओं के प्रदेश के साथ सूर्य के संयोगों और विभागों का" यह अध्याहार करना चाहिए । 'अस्यां सविता प्रथमञ्चति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'प्राची' शब्द का अर्थ है कि पूर्व दिशा में सूर्य सबसे पहिले आते हैं, अतः उसका नाम 'प्राची' है । 'अवागञ्चतीति अवाची' अर्थात् सूर्य जिस दिशा में पूर्व दिशा से कुटिल गति के द्वारा जाते हैं वही अवाची' है । 'प्रत्यगञ्चतीति प्रतीची' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सूर्य जिस दिशा में सबसे पीछे जाँय वही 'प्रतीची' है। 'उदगच्चतीति उदीची' इस व्युत्पति के अनुसार सूर्य जिस दिशा में सबसे उँचे पर हों वही 'उदीची' है। किस विशेषण से युक्त सूर्य का ? इस आकाङ्क्षा की पूर्ति के लिए 'मेरुं प्रदक्षिणमावर्त्तमानस्य' यह वाक्य है। अर्थात् मेरु के चारों तरफ प्रदिक्षण क्रम से घूमते हुए सूर्य का। महर्षियों ने ये संज्ञायें क्यों बनायीं ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए 'श्रुतिस्मृतिलोकमव्यवहारार्थ' यह वाक्य लिखा गया है। "श्रुतिश्च, स्मृतिश्च, लोकश्च, तेषां संव्यवहारार्थम्” इस व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ है कि श्रोत, स्मार्त और लौकिक इन सभी व्यवहारों को अच्छी तरह चलाने के लिए महर्षियों ने उन संज्ञाओं की रचना For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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