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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६. न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये कालप्रशस्तपादभाष्यम् वचनात् परममहत्परिमाणम् । कारणपरत्वादिति वचनात् संयोगः। तद्विनाशकत्वाद् विभाग इति । तस्याकाशवद्रव्यत्वनित्यत्वे सिद्धे । काललिङ्गाविशेषादञ्जसैकत्वेऽपि सर्वकार्याणामारम्भक्रियाभिनिवृत्तिस्थितिनिरोधोपाधिभेदान्मणिवत्पाचकवद्वा नानात्वोपचार इति । महत्परिमाण भी समझना चाहिए । “कारणपरत्वात्कारणापरत्वाच्च परत्वापरत्वे" (७।२।२२) इस सूत्र के बल से इसमें संयोग की सिद्धि समझनी चाहिए। विभाग चूँकि संयोग का विनाशक है, अतः विभाग भी काल में है। उसमें आकाश की ही तरह द्रव्यत्व और नित्यत्व भी सिद्ध हैं। चूँकि सभी कालों में उसके ज्ञापक हेतु समान रूप से हैं, अतः यद्यपि वह एक ही है, तथापि सभी क्रियाओं के आरम्भ, स्थिति और समाप्ति आदि उपाधियों से मणि और पाचक की तरह अनेकों जैसा प्रतीत होता है। न्यायकन्दली एकत्वस्य पृथक्त्वानुविधानं साहच्यर्यनियमः, तेनैकत्वात् पृथक्त्वसिद्धिः । कारणे काल इति वचनात् । परममहत्परिमाणमित्यनेन कारणे कालाख्या" इति सूत्रं लक्षयति । युगपदादिप्रत्ययानां कारणे कालाख्या कालसंज्ञेति सूत्रार्थः । तेन व्यापक: कालो लभ्यते, युगपदादिप्रत्ययानां सर्वत्र भावादित्यभिप्रायः। कारणपरत्वादिति वचनात संयोग इति । "कारणपरत्वात कारणापरत्वाच्च परत्वापरत्वे" इति सूत्रे कारणपरत्वशब्देन कालपिण्डसंयोगोऽभिहितः । तेनास्य संयोगगुणत्वं सिद्धम् । के अनेकत्व की ज्ञापिका होंगी ? (प्र०) काल के एक मान लेनेपर भी सहकारियों के भेद से उन विभिन्न प्रतीतियों की सिद्धि हो जाएगी। उसके अनुविधान से ही काल में पृथक्त्व भी हैं। अभिप्राय यह है कि एकत्व के साथ 'पृथक्त्व' का 'अनुविधान' अर्थात् नियत साहचर्य है। अतः काल में एकत्व की सिद्धि से पृथक्त्व की सिद्धि समझनी चाहिए। ___'कारणे काल:' सूत्रकार की इस उक्ति से काल में परममहत्परिमाणवत्त्वरूप विभुत्व की भी सिद्धि समझनी चाहिए। कथित 'उक्ति' शब्द से "कारणे कालख्या" (७ । १ । २५) इस सूत्र को समझना चाहिए । उस सूत्र का यह अर्थ है कि योगपद्यादि विषयक प्रतीतियों के असाधारण कारण का ही नाम 'काल' है चूंकि ये योगपद्यादि की प्रतीतियाँ सभी स्थानों में होती हैं, अतः यह समझना चाहिए कि काल व्यापक है । 'कारणपरत्ववचनात्' अर्थात् "कारणपरत्वात् कारणापरत्वाच्च परत्वापरत्वे” (७।२ । २२) इस सूत्र में महर्षि कणाद के द्वारा प्रयुक्त कारणपरत्व शब्द से काल और पिण्ड ( अवयवी द्रव्य ) का संयोग अभिप्रेत है। इसीसे काल में संयोगरूप For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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