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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १५४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये आकाश न्यायकन्दली भावात् । अतो गुणवत्त्वादनाश्रितत्वाच्च द्रव्यम् । यत आकाशं गुणवद् अतो गुणवत्त्वाद् द्रव्यं घटादिवत्, न केवलं गुणवत्त्वादाकाशं द्रव्यमनाश्रितत्वाच्च परमाणुवत्। समानासमानजातीयकारणाभावाच्च नित्यमिति । समानजातीयं समवायिकारणमसमानजातीयमसमवायिकारणं निमित्तकारणञ्च तेषामभावान्नित्यम्। सर्वप्राणिनां शब्दोपलब्धौ निमित्तमिति । नन्वेवं सर्वेषां सर्वशब्दोपलब्धिराकाशस्य सर्वत्राविशेषादत आह-श्रोत्रभावेनेति। किं पुनः श्रोत्रं तत्राहश्रोत्रं पुनरिति। श्रूयतेऽनेनेति श्रवणं, श्रवणञ्च तद्विवरञ्चेति श्रवणविवरं, तदेव संज्ञा यस्य नभोदेशस्य स नभोदेशः श्रोत्रम्, तत्पिधाने शब्दस्यानुपलम्भात् । तस्य विशेषणमाह-शब्दनिमित्तेत्यादिना । शब्दनिमित्त उपभोगः सुखदःखानुभवस्तस्य प्रापकाभ्यां धर्माधर्माभ्यामुपनिबद्धः सहकृत इति । अयमर्थः-यस्य बाबकैकेन्द्रियग्राह्यविशेषगुणग्राहकं यदिन्द्रियं तत्तद्गुणकं यथा रूपग्राहकं चक्षुरूपाधिकरणम्, श्रोत्रञ्च तथाभूतस्य शब्दस्य ग्राहक तस्मात्तदपि शब्दगुणकम् । रहनेवाली वस्तु का असमवायिकारण नहीं हो सकती। आकाश चूंकि गुणवान् है और स्वतन्त्र है, अतः द्रव्य है। आकाश में चूंकि गुण है, अतः वह द्रव्य है। केवल गुण ही आकाश में द्रव्यत्व का साधक नहीं है, यतः आकाश 'अनाश्रित' अर्थात स्वतन्त्र है, इसलिए भी वह द्रव्य है, जैसे कि परमाणु ! चूंकि उसका समानजातीय अथवा असमानजातीय कोई भी कारण नहीं है, अतः वह नित्य है (द्रव्य का) समवायिकारण समानजातीय कारण है, एवं असमवायिकारण और निमित्तकारण दोनों (द्रव्य के) असमानजातीय कारण हैं। आकाश के इन दोनों में से कोई भी कारण उपलब्ध नहीं है, अतः आकाश नित्य है। वह सभी प्राणियों के शब्दप्रत्यक्ष का कारण है। (प्र०) इस प्रकार तो सभी शब्दों का प्रत्यक्ष चाहिए? क्योंकि आकाश तो सर्वत्र समानरूप से विद्यमान है। इसीलिए कहा है 'श्रोत्रभावेन', अर्थात् श्रोत्ररूप से ही आकाश शब्दप्रत्यक्ष का कारण है। धोत्र किसे कहते हैं ? इस प्रश्न का समाधान 'भोत्रं पुनः' इत्यादि से कहते हैं। 'श्रवणविवरसंज्ञकम्' इस समस्त वाक्य का विग्रह यों है कि 'श्रवणञ्च तद्विवरञ्चेति भवणविवरम्, तदेव संज्ञा यस्य' अर्थात् शब्दप्रत्यक्ष का कारण विवर' रूप आकाश ही 'श्रोत्र' है, क्योकि उस विवर के ढंक जानेपर शब्द का प्रत्यक्ष नहीं होता है । 'शब्दनिमित्त' इत्यादि से उसका विशेश कहते हैं । शब्दमूलक 'उपभोग' अर्थात् सुखदुःखानुभव के प्रापक जो धर्माधर्म हैं, उनसे युक्त होकर ही श्रोत्र इन्द्रिय है । अभिप्राय यह है कि एक ही बाह्य इन्द्रिय से गृहीत होनेवाले जितने भी विशेष गुण हैं, उनकी ग्राहक इन्द्रियाँ भी तत्तद्विशेष गुण से युक्त हैं। जैसे रूप की ग्राहक चक्षुरिन्द्रिय रूप से युक्त है, उसी प्रकार श्रोत्र भी शब्द प्रत्यक्ष का कारण होने से शब्द से युक्त है । अतः उसमें For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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