SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४६ www.kobatirth.org न्यायकन्दली संवलित प्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दलो Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ द्रव्ये आकाश शात् तदर्थं प्रत्यक्षत्वे सतीत्यनुवर्त्तनीयम् । हेत्वन्तरञ्चाह - आश्रयादन्यत्रोपलब्धेश्च । स्पर्शवद्विशेषगुणत्वे शब्दस्य शङ्खादिराश्रयो वाच्यः । स च तस्मादन्यत्र दूरे कर्णशष्कुलीदेशे समुपलभ्यते, न चान्यगुणस्यान्यत्र ग्रहणमस्ति, तस्मान्न स्पर्शवद्विशेषगुणः । ननु शङ्खादिदेशस्थित एव शब्दो गृह्यते, इन्द्रियाणामासंसारमण्डलव्यापित्वादिति चेन्न, संनिकृष्ट विप्रकृष्टयोरविशेषेणोपलब्धिः स्यात् । व्यापकत्वेsपीन्द्रियाणां पुरुषार्थेन हेतुना क्षोभ्यमाणानां यदधिष्ठानदेशेभ्यो विषयग्रहणानुगुणवृत्तयो निर्गता विषयं विश्नुवते तदा विषयग्रहणस्य भावान्नाव्यवस्थेति चेत् ? विषयग्रहणार्थानीन्द्रियाणि, विषयग्रहणञ्च वृत्तिनिबन्धनम्, वृत्तय एवेन्द्रियाणि तदन्येषामनुपयोगान्निः प्रमाणकत्वाच्च / न च श्रोत्रवृत्तिविषयदेशं गत्वाऽर्थमुपलभते, चाक्षुषप्रतीताविव शब्देऽपि दिक्सन्देहानुपपत्तिप्रसङ्गात् । नापि For Private And Personal परमाणुओं के रहते हुए भी उन गुणों का नाश हो जाता है, अतः प्रथम हेतु के कथित 'प्रत्यक्षत्वे सति' इस विशेषण को अनुवृत्ति इस हेतु में भी करनी चाहिए। शब्द स्पर्शयुक्त द्रव्यों का गुण नहीं है इसकी सिद्धि के लिए 'आश्रयादन्यत्रोपलब्धेश्च' इत्यादि से एक और हेतु देते हैं । शब्द को अगर किसी स्पर्शयुक्त द्रव्य का गुण मानें तो जिन शङ्खादि द्रव्यों से शब्द की उत्पत्ति देखी जाती है उन द्रव्यों को शब्द का आश्रय मानना पड़ेगा, किन्तु शब्द तो उन द्रव्यों से दूर कर्णशष्कुली प्रदेश में उपलब्ध होता है । एवं एक द्रव्य का गुण दूसरे द्रव्य में उपलब्ध नहीं होता है, तस्मात् शब्द स्पर्श से युक्त शङ्खादि द्रव्यों का गुण नहीं है । ( प्र ० ) इन्द्रियाँ संसारमण्डलव्यापी हैं, अतः शङ्खादि देशों में विद्यमान शब्द की ही उपलब्धि होती है । ( उ० ) अगर इन्द्रियाँ संसारमण्डलव्यापी हों तो फिर दूर की और समीप की वस्तुओं के ग्रहण में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए । ( प्र ० ) इन्द्रियाँ यद्यपि व्यापक हैं, किन्तु पुरुषों के उपभोगजनक अदृष्ट से उनमें 'क्षोभ' अर्थात् कार्य करने योग्य क्रिया उत्पन्न होती है । अत: जब अधिष्ठान देश से विषयज्ञान के अनुकूल वृत्तियाँ निकल कर विषयों से सम्बद्ध होती हैं तब इन्द्रियों विषयों का ग्रहण होता है । अतः दूर और समीप की वस्तुओं के समान रूप से ग्रहण की आपत्ति नहीं है । ( उ० ) इन्द्रियाँ विषयग्रहण के का ग्रहण अगर वृत्तियों से होता है तो फिर वे ही इन्द्रियाँ हैं। का भी उपयोग विषयग्रहण में नहीं है । एवं विषय के ग्रहण में अनुपयोगी कोई भी वस्तु इन्द्रिय नहीं हो सकती है । जैसे कि रूप के प्रत्यक्ष के लिए चक्षु की वृत्ति को रूप के प्रदेश में जाना पड़ता है, श्रोत्र की वृत्ति को शब्दश्रवण के लिए उसके प्रदेश में जाने की आवश्यकता नहीं होती है । अगर ऐसा मानें तो रूपादि प्रतीति की तरह शब्द प्रतीति में दिक्सन्देह की उत्पत्ति नहीं होगी । ( अर्थात् यह शब्द पूर्व दिशा लिए हैं । विषयों उनसे भिन्न किसी
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy