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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् १४३ प्रशस्तपादभाष्यम् आकाशकालदिशामेकैकत्वादपरजात्यभावे पारिभाषिक्यस्तिस्रः संज्ञा भवन्ति, आकाशः कालो दिगिति । तत्राकाशस्य गुणाः शब्दसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः । आकाश, काल और दिक् इन तीनों में से प्रत्येक एक एक ही है, अतः उनमें से किसी में (द्रव्यत्व से भिन्न द्रव्यत्व व्याप्य और कोई) भी अपर जाति नहीं है। तस्मात् आकाश, काल और दिक नाम की उन तीनों की तीन पारिभाषिक संज्ञायें हैं। इनमें आकाश के शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग ये छ: गुण हैं। . न्यायकन्दली आकाशादीनां त्रयाणां सङ्क्षपार्थमेकेन ग्रन्थेन वैधयं कथयतिआकाशकालदिशामिति । आकाशस्य कालस्य दिशश्चैकैकत्वादपरजाति स्ति, तस्या व्यक्तिभेदाधिष्ठानत्वात् । अपरजात्यभावे चाकाश इति काल इति दिगिति तिस्रः संज्ञाः पारिभाषिक्यो न पृथिव्यादिसंज्ञावदपरजातिनैमित्तिक्य इत्यर्थः । संज्ञेषामितरवैधयं यस्याः संज्ञाया विना निमित्तेन शृङ्गग्राहिकया सङ्केतः सा पारिभाषिको, यथायं देवदत्त इति । यस्याः पुननिमित्तमुपादाय सङ्केतः सा नैमित्तिकोति विवेकः। सम्प्रति प्रत्येक निरूपणार्थमाह-तत्राकाशस्य गुणा इति । तेषां त्रयाणां थोड़े शब्दों में ही आकाशादि तीनों द्रव्यों का लक्षण कहने के अभिप्राय से 'आकाशकालदिशाम्' इत्यादि एक ही वाक्य से उन सभी के असाधारण धर्म कहे गये हैं। अभिप्राय यह है कि जातियों की कल्पना आश्रयों की विभिन्नता से ही की जाती है, आकाशादि चूकि एक एक ही हैं, अतः अपर जातियाँ उनमें न रहने के कारण आकाश, काल और दिक् ये तीनों संज्ञायें पारिभाषिकी हैं । अर्थात् पृथिवीत्वादि अपर जातियों की निमित्तमूलक पृथिव्यादि संज्ञाओं की तरह आकाशादि नैमित्तिक संज्ञायें नहीं हैं। इन तीनों की ये पारिभाषिकी संज्ञायें ही औरों की अपेक्षा इनका वैधर्म्य हैं। जैसे कि शाम को गोष्ठ के सोमने इकठ्ठी हुई गायों में से उनका रक्षक अपनी इच्छा के अनुसार किसी एक को पकड़ कर अन्दर कर देता है, उसी प्रकार जो संज्ञा किसी निमित्त विशेष की अपेक्षा न करके किसी व्यक्तिविशेष का बोध करा देती है, वही पारिभाषिकी संज्ञा है, जैसे कि देवदत्तादि संज्ञाएँ । जो संज्ञा किसी निमित्तमूलक सङ्केत से स्वार्थ विषयक बोध का उत्पादन करती है, उसे नैमित्तिकी संज्ञा कहते हैं । यही इन दोनों संज्ञाओं में अन्तर है। ____अब इन तीनों में से प्रत्येक का निरूपण करने के लिए 'तत्राकाशस्य गुणाः' इत्यादि वाक्य लिखते हैं । अर्थात् इन तीनों में से आकाश में शब्द, संख्या, परिमाण, For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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