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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (८) पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा और मन ये द्रव्य के नौ प्रकार (मेद) हैं। इन सभी द्रव्यों को नित्य और अनित्य भेद से दो भागों में बाँटा जा सकता है । पृथिवी, जल, तेज, वायु इन चार द्रव्यों के परमाणु और आकाश, काल, दिक, आत्मा और मन ये सभी द्रव्य नित्य हैं। एवं कथित परमाणुओं से भिन्न पृथिव्यादि चारों द्रव्य के सभी प्रभेद उत्पत्तिशील होने के कारण अनित्य हैं। अनित्य द्रव्यों में से पृथिव्यादि तीन द्रव्यों को शरीर, इन्द्रिय और विषय इन तीन भागों में विभक्त किय. गया है । किन्तु वायु का इन तीनों से भिन्न 'प्राण' नाम का एक चौथा भेद भी है । - आत्मा विभु है, अतः सभी मूर्त द्रव्यों के साथ उसका संयोग है, किन्तु सुख दुःखों का अनुभव, अर्थात् भोग वह शरीर में ही करता है अतः शरीर के साथ उसका और मूर्त्त द्रव्यों से विलक्षण प्रकार का अवच्छेदकत्व नाम का सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध के ही कारण शरीर को आत्मा के भोग करने का 'आयतन' कहा जाता है । फलतः आत्मा के भोग का आयतन ही 'शरीर' है। यह शरीर भी पार्थिव, जलीय, तैजस और वायवीय भेद से चार प्रकार का है। इनमें मानव शरीर पार्थिव है, क्योंकि इस शरीर का उपादान पृथिवी रूप द्रव्य ही है । यद्यपि जलादि और द्रव्यों का भी सम्बन्ध इसमें प्रतीत होता है, फिर भी वे इसके उपादान या समवायिकारण नहीं है, निमित्तकारण हैं। पृथिवी से लेकर आकाशपर्यन्त सभी भूतद्रव्य शरीर के बनने में हेतु हैं, अतः यह शरीर पाञ्चभौतिक भी कहलाता है। अस्मदादि के शरीर का उपादान कारण या समवायिकारण पृथिवी रूप द्रव्य ही है, अतः उसे पार्थिव कहा जाता है । वैशेषिक सिद्धान्त के अनुसार शरीर का समवायिकारण पृथिवी, जल, तेज, वायु इन चारों में से कोई एक ही है, शेष चार उसके निमित्तकारण हैं। अतः पृथिवी रूप उपादान से उत्पन्न हम लोगों का शरीर पार्थिव है। पार्थिव शरीर के (१) योनिज और (२) अयोनिज दो भेद हैं । योनिज शरीर के भी दो भेद हैं (१) जरायुज और (२) अण्डज | जरायुज मानुषादि के शरीर हैं, और पशुपक्षी आदि के शरीर अण्डज हैं। स्वेदज और उभिज्जादि के शरीर अयोनिज हैं। स्वेदज हैं कृमि प्रभृति और उद्भिज्ज हैं वृक्षादि । नारकीय शरीर भी अयोनिज ही है। जल रूप समवायिकारण और शेष चार भूत द्रव्य रूप निमित्तकारणों से उत्पन्न शरीर जलीय शरीर है, जो 'वरुणलोक' में प्रसिद्ध है। तेज रूप समवायिकारण और शेष चार भूत द्रव्य रूप निमित्तकारणों से उत्पन्न शरीर 'तेजस शरीर' कहलाता है, जो 'सूर्यलोक' में प्रसिद्ध है । वायु रूप समवायिकारण और शेष चारों भूत द्रव्य रूप निमित्तकारणों से जिस शरीर का निर्माण होता है, वह वायवीय शरीर कहलाता है । पिशाचादि का शरीर वायवीय शरीर है। घ्राण, रसना, चक्षुः, त्वचा, श्रोत्र और मन ये छः इन्द्रियाँ हैं। हाथ, पैर प्रभृति शरीर के अवयव मात्र हैं, इन्द्रिय नहीं। इनमें श्रोत्र आकाश रूप है, अतः नित्य है। और मन परमाणु रूप है, अतः नित्य है । चक्षुरादि शेष चार इन्द्रियाँ क्रमशः पृथिवी, जल, तेज और वायु रूप द्रव्य से उत्पन्न होती हैं। इनमें प्राण पार्थिव है, रसना जलीय है, चक्षु तैजस है और त्वचा वायवीय है। फलतः घ्राण पृथिवी है, रसना जल है, चक्षु तेज है और त्वचा वायु है। इस प्रकार प्राण प्रभृति चार इन्द्रियाँ पृथिवी प्रभृति चार For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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