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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १३१ प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् नुरूपज्ञानभोगायुषः सुतान् प्रजापतीन् मानसान् मनुदेवर्षिपितृगणान् मुखबाहूरुपादतश्चतुरो वर्णानन्यानि चोच्चावचानि भूतानि च सृष्ट्वाशयानुरूपैर्धर्मज्ञानवैराग्यैश्वय्यः संयोजयतीति । और आयु से युक्त 'सुत' अर्थात् प्रजापतियों की एवं 'मानस' अर्थात् मनु, देवर्षि और पितृगणों की सृष्टि करते हैं । एवं अपने मुह से ब्राह्मणों को, बाहु से क्षत्रियों को, जङ्घा से वैश्यों को और पैर से शूद्रों को उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार और भी छोटे बड़े अनेक प्राणियों को उत्पन्न करके सभी को कर्मों के अनुरूप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य के साथ सम्बद्ध करते हैं। न्यायकन्दली प्रवर्तते, ऐश्वर्यात् कर्मफलं भोजयति। प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वेति । विविधेन प्रकारेण पाको विपाकः, कर्मणां विपाकः कर्मविपाकः, तं विदित्वा एतावदस्य कर्मफलं भविष्यतीति ज्ञात्वा, कर्मानुरूपाणि ज्ञानभोगायूंषि तान् सुतान् प्रजापतीन् दक्षादीन् मानसान् मनःसङ्कल्पप्रभवान् मनुदेवर्षिपितृगणान् मनून, देवान्, ऋषीन्, पितृगणान्, मुखबाहूरुपादतश्चतुरो वर्णान् मुखाद् ब्राह्मणान्, बाहुभ्यां क्षत्रियान्, ऊरुभ्यां वैश्यान्, पद्धयां शूद्रान्, अन्यानि चोच्चावचानि क्षुद्रक्षुद्रतराणि च भूतानि सृष्ट्वा, आशयानुरूपैः आशेते फलोपभोगकालं यावदात्मन्यवतिष्ठत इत्याशयः कर्म, तदनुरूपैर्धर्मज्ञानवैराग्यश्वय्यः, संयोजयति यस्य यथाविधं कर्म तत्तदनुरूपेण ज्ञानादिना सम्यग् योजयति, मात्रयाऽप्यन्यथा न करोतीत्यर्थः। के बल से वह प्राणियों के कर्म का भोग सम्पन्न कर सकते हैं। 'प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वा', विविधेन प्रकारेण पाको विपाकः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अनेक प्रकार की परिणति 'विपाक' शब्द का अर्थ है । 'कर्मणां विपाकः कर्मविपाक:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार कर्मों की विविध परिणति ही 'कर्मविपाक' शब्द का अर्थ है । अतः वे कर्मविपाक को समझकर अर्थात् 'इस जीव के कर्मों का फल इतना होगा' यह समझकर 'कर्मानुरूपज्ञानभोगायुषः' अर्थात् कर्म के अनुरूप ज्ञान, भोग और आयु से युक्त दक्षप्रजापति प्रभृति पुत्रों को, मन मात्र से उत्पन्न अत एव मानस पुत्ररूप मनुओं, देवताओं, ऋषियों और पितरों को उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार मुख, बाहु, जङ्घा, एवं चरणों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्गों को एवं और भी छोटे बड़े जीवों को उत्पन्न करते हैं । 'आशयानुरूपैः' अर्थात् 'आरोते फलोपभोगकालं यावदात्मन्यवतिष्ठित इत्याशयः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार फलों के उपभोग पर्यन्त जो आत्मा रहे उसे 'आशय' कहते हैं। फलतः कर्म ( अदृष्ट ) ही 'आशय' For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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