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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् इहेदानीं चतुर्णा महाभूतानां सृष्टिसंहारविधिरुच्यते । त्राह्मण अब यहाँ पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चारों महाभूतों की सृष्टि और उनके संहार की रीति कहते हैं । ब्राह्म मान से सौ वर्ष के अन्त में जब वर्तमान न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२१ ननु पञ्च वायवः शारीराः श्रूयन्ते ? तत्राह - - क्रियाभेदादिति । मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपानः, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यानः, अन्नपानादेरूर्ध्वं नयनादुदानः, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राणः, आहारेषु पाकार्थमुदय्र्यस्य वह्नेः समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तवमेतेषां पञ्चत्वमपि तु कल्पितम् । कथम् ? एकस्मिन्नाश्रये मूर्त्तानां समावेशाभावात् । उत्पत्तिमन्ति चत्वारि द्रव्याण्याख्याय विस्तरात् । तेषां कर्त्ती परीक्षार्थमुद्यमः क्रियतेऽधुना ॥ पृथिव्यादीनां चतुर्णामुत्पत्तिविनाशौ निरूपणीयौ । तयोश्च प्रतिप्रकरणं निरूपणे ग्रन्थविस्तरः स्यादिति समानन्यायेनैकत्र निरूपणार्थं प्रकरणमारभ्यते-- चतुर्णा - मिति । सृष्टिसंहारयोर् उत्पत्तिविनाशयोः, विधिः प्रकारः कथ्यते । यद्यप्येकत्र चतुर्णामपि सृष्टिसंहारौ कथ्येते, तथापि नेदं साधर्म्याभिधानम्, प्रत्येकं विलक्षणयो पाँचवा हैं (फिर एक कैसे ? ), इसी आक्षेप का समाधान 'क्रियाभेदात्' इत्यादि से देते हैं। मूत्र और विष्ठा को नीचे ले जाने के कारण यही प्राणवायु 'अपान' कहलाता है । यह व्यान इसलिए कहलाता है कि इसका काम गर्भनाडी में रस का विस्तार करना भी है । खायी और पीयी हुई वस्तुओं को ऊपर ले जाने के कारण वही 'उदान' शब्द से भी अभिहित होता है। मुँह और नाक निकलने के कारण ही वह प्राण कहलाता है । आहार द्रव्य को पचाने के लिए उदर्य तेज को उनमें पहुँचाने के से समान रूप से पचत्व उसमें कल्पित है, कारण वही प्राण वायु 'समान' कहलाता है। इस प्रकार किन्तु वस्तुतः वह एक ही है । ( प्र० ) वह एक ही क्यों हैं ? ( उ० ) चूँकि एक मूर्त द्रव्य में अनेक द्रव्यों का समावेश असम्भव 1 For Private And Personal उत्पत्तिशील चारों द्रव्यों की विस्तृत व्याख्या के का उद्योग करते हैं । पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन विनाश इन दोनों का निरूपण करना है । इन दोनों का अगर अलग निरूपण किया जाय तो ग्रन्थ का व्यर्थं विस्तार होगा । दोनों का निरूपण करने के लिए 'चतुर्णाम्' इत्यादि सन्दर्भ को संहारयोः' अर्थात् उत्पत्ति और विनाश इन दोनों को 'विधि' यद्यपि चारों भूतों को सृष्टि और संहार दोनों का निरूपण साथ ही किया जाता है, बाद अब उनके कर्त्ता की परीक्षा चारों द्रव्यों की उत्पत्ति और प्रत्येक प्रकरण में अलगअतः संक्षेप में एक ही जगह आरम्भ करते हैं । 'सृष्टिअर्थात् प्रकार कहते हैं । १६
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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