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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११६ भावानुवादसहितम् प्रकरणम् ] प्रशस्तपादभाष्यम् समानजवयोर्वाय्वोविरुद्धदिक्रिययोः समिपातः, सोऽपि सावयविनोर्वाय्वोरूर्ध्वगमनेनानुमीयते, तदपि तृणादिगमनेनेति । का मेल ही (प्रकृत में ) 'सम्मूर्च्छन' शब्द का अर्थ है । अवयवयुक्त दो वायुओं के ऊपर जाने की क्रिया से समूर्च्छन का भी अनुमान ही होता है। एवं तृणादि द्रव्यों के ऊपर जाने की क्रिया से ही सावयव वायुओं की ऊपर जाने की क्रिया का भी अनुमान ही होता है। न्यायकन्दली तस्याप्रत्यक्षस्यापीति । सन्मूर्छनमपि न ज्ञायते तदर्थमाह-सम्मूर्च्छनमिति । विरुद्धायां दिशि क्रिया ययोस्तयोः सन्निपातः परस्परगतिप्रतिबन्धहेतुः संयोगविशेषः सम्मूर्छनम्, तेन वायो नात्वमनुमीयते, एकस्य संयोगाभावात, एकदिवप्रस्थितयोर्यथाक्रमं गच्छतोः सम्मूर्च्छनाभाव इति विरुद्धदिक्क्रिययोभिन्नदिविक्रययोरित्यर्थः । असमानवेगयोः सम्मूर्छनं न भवति, एकेनापरस्य विजयात् तदर्थ समानजवयोरिति । अप्रत्यक्षयोर्यथा नानात्वमप्रत्यक्ष तथा संयोगेऽपीति मत्वेदमाहसोऽपीति । सोऽपि सन्निपातोऽपि । सावयविनोर्वाय्वोरूर्ध्वगमनेनानुमीयते, वायोरूर्ध्वगमनं परस्परव्याहतिपूर्वकमन्यकारणासम्भवे सति तिर्यग्गतिस्वभावद्रव्यो र्ध्वगतित्वात् परस्पराहतजलतरङ्गोदर्ध्वगमनवत् । अवयविनोरिति वक्तव्ये काल और दिक् ये तीनों एक एक ही है एवं आत्मा और मन अनेक हैं), अतः (प्रत्यक्ष क अविषय और अनुमान से सिद्ध) वायु में संशय होता है कि वायु एक है या अनेक ? इसी संशय को हटाने के लिए 'तस्याप्रत्यक्षस्यापि' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं। यह भी नहीं समझते कि 'संमूच्र्छन' क्या है ? इसी को समझाने के लिए 'संमू छनम्' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं । अर्थात् समानवेग की जिन दो वायुओं की गति दो विरुद्ध दिशाओं में हैं, उन दोनों का संनिपात' अर्थात् दोनों की गति को प्रतिरुद्ध करनेवाला विशेष प्रकार का संयोग ही 'संमूर्छन' है। न्यूनाधिक वेग की वायुओं का संमूर्छन नहीं हो सकता है, क्योंकि अधिक वेगवाली न्यून वेगवाली के ऊपर विनय पा . जाती है, अत: लिखा है कि 'समानजवयोः' । आँखों से न दीखनेवाली वस्तुओं के नानात्व का भी जैसे प्रत्यक्ष नहीं होता है, उसी प्रकार उन वस्तुओं में रहनेवाले संयोग का भी प्रत्यक्ष नहीं होता है। यही मानकर 'सोऽपि' इत्यादि ग्रन्थ लिखते हैं। 'सोऽपि' अर्थात् उक्त संयोग विशेष रूप संनिपात भी अवयवों से युक्त दो वायुओं की ऊपर की गति से अनुमति होता है, अर्थात् दोनों वायुओं का ऊपर जाना उनके परस्परसंघर्ष से उत्पन्न होता है, क्योंकि उनके ऊपर जाने का कोई दूसरा कारण सम्भावित नहीं है अथ च वह गति कुटिल स्वभाव के दो द्रव्यों की है, जैसे कि परस्पर संघर्ष से For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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