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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पर प्रशस्तपाद भाष्य को स्वतन्त्र निबन्ध मानने में भी कुछ कठिनाई होती है। क्योंकि इस ग्रन्थ में जिस प्रकार अपने सभी मन्तव्यों को प्रतिपद सूत्र के द्वारा प्रतिपन्न करने की चेष्टा की गई है, वैसी चेष्टा और स्वतन्त्र निवन्धग्रन्थों में नहीं देखी जाती। अतः इसे भाष्य न मानने वालों को भी इसे और स्वतन्त्र निबन्धग्रन्थों से भिन्न प्रकार का मानना ही होगा । अतः हम यथास्थितिपालकों का कहना है कि यह वैशेषिकसूत्रों का भाष्य ही है। 'भाष्य के सभी लक्षण इसमें पूर्णरूप से संघटित नहीं होते' यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है । क्योंकि पदों के जितने भी अर्थ होते हैं, वे सभी अविकल रूप से सभी अभिधेयों में नहीं घटते । यह बात भाष्य पद से निर्विवाद रूप से समझे जाने वाले ग्रन्थों में भी देखी जा सकती है कि सभी भाष्य कहाने वालों ग्रन्थों में उक्त सूत्रानुवर्तिता समान नहीं है, थोड़ा बहुत अन्तर है हो । तस्मात् यह ग्रन्थ भाष्य के पूर्णलक्षण से युक्त न होने पर भी भाष्य ही है, प्रामाणिकता में तो किसी भाष्य ग्रन्थ से न्यून है ही नहीं। इसके बाद तो फिर वैशेषिक दर्शन के प्रसङ्ग में जो कुछ भी टीकादि ग्रन्थों का निर्माण हुआ, सब इसी ग्रन्थ को आधार मानकर हुआ। जिनमें (१) मिथिला के श्री उदयनाचार्य की किरणावली (२) वनकुलालङ्कार श्री श्रीधरभट्ट की न्यायकन्दली और (३) विद्वत्कुलालङ्करण श्री व्योमशिवाचार्य की व्योमवती ये तीन प्राचीन टीकायें अधिक प्रसिद्ध हुई। इनमें भी किरणावली टीका सम्पूर्ण न होने पर भी सबसे अधिक मान्य हुई और इसकी टीका और उपटीकाओं की एक लम्बी परम्परा बन गयी । न्यायकन्दली पर भी टीका की रचनायें हुई, किन्तु वे उतनी प्रसिद्धि न पा सकीं गुजरात प्रान्त में इसका प्रचलन अधिक सुना जाता है। न्यायकन्दलीटीका की सबसे खूबी यह है कि वह सम्पूर्ण प्रशस्तपाद भाष्य के ऊपर है, और मूल ग्रन्थप्राय के प्रत्येक पद को सादे शब्दों में समझाने में अधिक तत्पर है । व्योमवती टीका प्रायः दक्षिण में अधिक प्रचलित है। इन तीनों से भिन्न पद्मनाभमिश्रकृत सेतु और जगदीश तर्कालङ्कार की सूक्ति टीका भी है, किन्तु दोनों ही असम्पूर्ण हैं । वैशेषिकदर्शन के सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवरण वैशेषिकदर्शन का आरम्भ 'धर्म' व्याख्या की प्रतिज्ञां से हुआ है। सभी प्रकार के ऐहिक और पारलौकिक इष्टों और मोक्ष के साधन को ही इस दर्शन में धर्म कहते हैं । यह धर्म (१) प्रवृत्तिलक्षण और (२) निवृत्तिलक्षण भेद से दो प्रकार का है । प्रवृत्तिलक्षण धर्म से ऐहिक तथा पारलौकिक स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है । एवं निवृत्तिलक्षण रूप 'विशेष' धर्म के द्वारा (१) द्रव्य, (२) गुण, (३) कम, (४) सामान्य (५) विशेष (१) समवाय और (७) अभाव इन सात पदार्थों का साधर्म्य और वैधर्म्य रूप से तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है, उसी से मुक्ति होती है। अर्थात् निवृत्तिलक्षण धर्म के द्वारा मुक्ति के सम्पादन में द्रव्यादि पदार्थो का और उनके परस्पर साधम्य और वैधर्म्य का ज्ञान मध्यवर्ती व्यापार हैं। यद्यपि 'आत्मा वारे श्रोतव्यः, तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति' इत्यादि श्रुतियों के द्वारा आत्मतत्त्व ज्ञान को ही मोक्ष का कारण माना For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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