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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०७ प्रकरणम् भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली दूषणम्, अविरोधात् । रागद्रव्यसंयोगो रक्तत्वम्, अरक्तत्वञ्च तदभावः। उभयं चैकत्र भवत्येव, संयोगस्याव्याप्यवृत्तिभावात् । इदमपरं बाधकम्, अवयविनः प्रत्यवयवमेकदेशेन वृत्तिः कात्न्येन वा? प्रकारान्तराभावात् । न तावदेकदेशेन वृत्तिरवयवव्यतिरेकेणास्यैकदेशाभावात् । कात्स्न्येन वृत्तौ वाऽवयवान्तरे वृत्यभावः, एकावयवसंसर्गावच्छिन्ने स्वरूपेऽवयवान्तराणामनवकाशात, तत्स्वरूपव्यतिरेकेण चास्य स्वरूपान्तराभावात् । अत्रापि निरूप्यते--यद् वर्त्तते तदेकदेशेन वर्तते कात्स्न्ये न वेति ? किमिदं स्वसिद्धमभिधीयते परसिद्धं वा? स्वयं तावत् कस्यचित् क्वचिद् वृत्तिरसिद्धा शाक्यानाम्, परस्यापि नैकदेशकात्या॑भ्यां वृत्तिः सिद्धा, तयोरवृत्तित्वात्, वृत्ति प्रत्यकारणत्वाच्च। रक्त अवयवों में रहने वाले अवयवी को रक्त मानना पड़ेगा, और अरक्त अवयवों में रहनेवाले अवयवी को अरक्त मानना पड़ेगा, एवं दोनों प्रकार के अवयवों में रहनेवाला अवयवी एक ही है। अवयव समुदाय से भिन्न एक अवयवी के मानने में उक्त रीति से एक ही काल में एक ही वस्तु में रक्तत्व और अरक्तत्व इन दो विरुद्ध धर्मों का समावेश स्वीकार करना पड़ेगा। ( उ०) यह भी दोष नहीं है, क्योंकि “रक्तत्व' शब्द का अर्थ है लाल द्रव्य का संयोग, एवं अरक्तत्व शब्द का अर्थ है उसका अभाव । संयोग 'अव्याप्यवृत्ति' अर्थात् एक ही समय में अपने आश्रय के किसी अंश में रहता है, एवं किसी में नहीं। तस्मात् रक्तत्व और अरक्तत्व दोनों का एक ही समय में एक अवयवी में रहना उनके परस्पर अविरोधी होने के कारण युक्तिविरुद्ध नहीं है । __ अवयवों से भिन्न अवयवी के मानने में बौद्ध लोग एक आपत्ति और करते हैं कि ( प्र०) प्रत्येक अवयव में अवयवी अपने किसी एक अंश के द्वारा सम्बद्ध रहता है ? या अपने सम्पूर्ण रूप से ? इन दोनों से भिन्न कोई तीसरा प्रकार नहीं है। किन्तु किसी एक अंश से तो रह नहीं सकता, क्योंकि उन अवयवों को छोड़कर उसका कोई एक अंश नहीं है। उसका अवयवों में अपने सम्पूर्ण रूप से रहना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इस प्रकार वह अपने किसी एक ही अवयव में रहेगा और अवयवों में नहीं, क्योंकि एक अवयव में अपने सम्पूर्ण रूप से सम्बद्ध अवयवी की दूसरे अवयवों में सम्बद्ध होने की सम्भावना नहीं है। जिस रूप से वह एक अवयव में सम्बद्ध होगा, उसको छोड़कर अवयवी का कोई दूसरा रूप नहीं है। किन्तु इस रूप से तो वह एक अवयव में है ही। ( उ० ) इस विषय में यह पूछना है कि अवयवी अवयवों में एक अंश से रहता है या सम्पूर्ण रूप से ? यह प्रश्न आप (बौद्ध) अपने से कर रहे हैं ? या दूसरों के सिद्धान्त के अनुसार ? बौद्धों के यहाँ किसी वस्तु की वृत्तिता किसी वस्तु में है ही नहीं। दूसरों के मत में भी 'एक देश से या सम्पूर्ण रूप से वृत्तिता सिद्ध For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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