SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्य जः न्यायकन्दलो कथं तहि गन्धरसयोरनुष्णाशीतस्पर्शस्य च गुणस्योपलब्धिरत आह--तत्रेति । भोगिनामदृष्टवशेन भूयसां पार्थिवानां पार्थिवावयवानामुपष्टम्भादनुभूतरूपस्पर्श पिण्डीभावयोग्यं सुवर्णादिकमारभ्यते, तत्र पार्थिवद्रव्यसमवेता इमे रसादयो गृह्यन्ते । इतिशब्दः समाप्तौ।। ____ अनुद्भूतरूपस्पर्श सुवर्णादिकमिति न मृष्यामहे, प्रतीयमानरूपस्पर्शव्यतिरिक्तस्य द्रव्यान्तरस्याभावादिति चेन्न, स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमिति प्रत्येकविलक्षणसंस्थानसंवेदनाद्पादिस्वभावस्य सर्वत्राविशेषात् । वासना. भेदात् प्रतिसञ्चयं संवित्तिभेद इति चेत् ? नीलादिसंवित्तिभेदोऽपि वासनाकृत एवास्तु नार्थो नीलादिभेदेन । असति बाह्यवस्तुनि स्वसन्तानमात्राधीनजन्मनो वासनापरिपाकस्य कादाचित्कत्वानुपपत्तेस्तन्मात्रहेतो!लादिसंवेदनस्य कादाचित्कत्वासम्भवान्नीलादिभेदकल्पनेति चेत् ? स्तम्भादिहोने में अनुमान प्रमाण का उल्लेख कर चुके हैं । (प्र०) फिर सुवर्णादि में गन्ध, रस एवं अनुष्णाशीत स्पर्श प्रभृति की उपलब्धि कैसे होती है ? इसी प्रश्न के उत्तर में 'तत्र' इत्यादि पंङ्कि लिखी गयी है । भोग करनेवाले के अदृष्ट की सहायता से पार्थिव अवयवों के संयोग द्वारा (पार्थिव वस्तुओं की तरह) ठोस सुवर्णादि तैजस द्रव्यों की उत्पत्ति होती है। सुवर्णादि में निमित्त कारणरूप इन पार्थिव अवयवों के ही रसादि प्रतीत होते हैं । इस ‘इति' शब्द का अर्थ है समाप्ति । __ (प्र०) हम लोगों को यह बात मान्य नहीं है कि अनुभूत रूप एवं अनुभूत स्पर्श से युक्त सुवर्ण नाम का कोई द्रव्य है, क्योंकि प्रतीत होनेवाले रूपरसादि को छोड़कर द्रव्य नाम की कोई दूसरी वस्तु नहीं है । (उ०) नहीं क्योंकि "यह खूटा है, यह घट है" इन दोनों प्रतीतियों से दो विभिन्न आकार की वस्तुओं की सत्ता जनसाधारण के अनुभव से सिद्ध है, किन्तु खूटा और घट दोनों के रूपादि गुणसमूह तो समान ही हैं। (प्र.) वासना (मिथ्याज्ञ!नजनित संस्कार) के भेद से प्रत्येक गुणसमूह की प्रतीतियाँ विभिन्न आकार की होती हैं ? (उ०) फिर 'यह नील है', 'यह पीत है' इत्यादि गुणविषयक प्रतीतियाँ भी वासना से ही मान ली जायें, नीलादि गुणों की भी सत्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। (प्र०) अगर (नीलादि ) किसी बाह्य वस्तु की सत्ता न मानी जाय तो फिर नीलादि प्रतीतियाँ कभी होती हैं एवं कभी नहीं। उनका यह कादाचित्कत्व अनुपपन्न हो जाएगा, क्योंकि वासना के परिपाक से तो कादाचित्कत्व सम्भव नहीं है, चूंकि वह अपने पूर्ववर्ती समूहों से ही उत्पन्न होती है, अतः नीलादि गुणों की सत्ता अवश्य माननी पड़ती है, जिससे उनकी सत्ता से नीलादि प्रतीतियाँ होती हैं और १. अर्थात् प्रतीत होनेवाले गुणसमूह को ही द्रव्य मानें तो दोनों प्रतीतियों में विलक्षणता उत्पन्न नहीं होगी, क्योंकि विषयों के अन्तर हुए बिना ज्ञानों में अन्तर For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy