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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ९२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये जल प्रशस्तपादभाष्यम् शुक्लमधुरशीता एव रूपरसस्पर्शाः । रूपों में शुक्ल रूप ही जल में है, रसों में मधुर रस ही एवं स्पर्शों में शीतस्पर्श ही है। न्यायकन्दली सिद्धिः प्रतिपत्तिस्तथाप्स्वपीत्यर्थः । तथा च सूत्रम्- रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धाश्च" इति । सङ्घयादिप्रतिपादकन्तु साधारणमेव सूत्रम् । वैधर्म्यनिरूपणावसरे पृथिव्यादिसाधारणानां रूपादीनामभिधानमयुक्तमित्याशयावान्तरभेदेनैषामसाधारणत्वं प्रतिपादयति-शुक्लेत्यादि । शुक्लमेव रूपमपाम्, मधुर एव रसः, शीत एव स्पर्शः। अप्सु रूपान्तरप्रतीतिराश्रयरूपभेदात् । कथमेतदिति चेत् ? तासामेवोद्धृत्य वियति विक्षिप्तानां धवलिममात्रप्रतीतेः, पुनिपतितानामाश्रयरूपानुविधानात् । तासु न मधुरो रसो गुडादिवदप्रतिभासनादिति चेत् ? न, कटुकषायतिक्तलवणाम्लविलक्षणस्य रसस्य संवेदनात्, गुडादिवदप्रतिभासनन्तु माधुर्यातिशयाभावात् । अर्थात् ज्ञान होता है, उसी प्रकार जल में भी ( समझना चाहिए )। जैसा कि सूत्र है"रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवा: स्निग्धाश्च” (२।१।२) । अर्थात् रूप, रस, स्पर्श, द्रवत्व और स्नेह से युक्त वस्तु ही जल है । संख्यादि नौ गुणों के लिए वही साधारण ('सख्याः परिमाणानि' इत्यादि ४ । १ । ११) सूत्र है । रूपादि जितने गुण पृथिवी प्रभृति और द्रव्यों में भी रहते हैं. जल के वैधर्म्य के निरूपण के प्रसङ्ग में उनका निरूपण क्यों? इस प्रकार का प्रश्न अपने मन में रखकर ये रूपादि गुण भी जिस रीति से जल के वैधर्म्य हो सकते हैं वह रीति 'शुक्लमधुर' इत्यादि से कहते हैं । ( रूपों में ) शुक्ल रूप ही ( जल में ) है, एवं ( रसों में ) मधुर रस ही जल में है, एवं ( स्पर्शों में) शीत स्पर्श ही ( जल में ) है। आश्रय रूप उपाधि के भेद से ही जल में दूसरे रूपों की प्रतीति होती है । (प्र०) यह कैसे समझते हैं ? (उ०) उसी जल को आकाश की ओर उछाल कर आश्रय से विच्छिन्न कर दिया जाय तो फिर उस (जिस जल में नील-रूप का भान होता है ) में भी शुक्ल रूप की ही प्रतीति होती है। (प्र.) जल में मधुर रस नहीं है, क्योंकि गुड़ प्रभृति द्रव्यों की तरह जल में मधुर रस की प्रतीति नहीं होती। ( उ० ) यह स्वीकृत सत्य है कि 'जल में रस हैं', किन्तु वह रस कटु, कषाय, तिक्त, लवण और अम्ल से भिन्न है, अतः जल का रस मधुर ही है, क्योंकि इनसे भिन्न कोई सातवाँ रस नहीं है । गुड़ प्रभृति द्रव्यों की तरह जल में मधुर रस का भान इसलिए नहीं होता कि इसमें गुड़ादि द्रव्यों की तरह उत्कट माधुर्य नहीं है। केवल इससे जल में मधुर रस के अभाव की सिद्धि नहीं हो सकती। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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