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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये पृथिवी प्रशस्तपादभाष्यम् विषयस्तु द्वयणुकादिक्रमेणारब्धस्त्रिविधो मृत्पाषाणस्थावरलक्षणः । विषय रूप पृथिवी परमाणुओं से द्वयणुक, व्यसरेणु प्रभृति के क्रम से उत्पन्न होती है। विषय रूप पृथिवी भी (१) मृत्तिका, (२) पाषाण और (३) स्थावर न्यायकन्दली दिदमेव गन्धाभिव्यक्तिसमर्थम्, नान्यदित्यर्थ । घ्राणमिति तस्य संज्ञा । आत्मा जिघ्रति गन्धमुपादत्तेऽनेनेति कृत्वा तत्सद्भावे गन्धोपलब्धिरेव प्रमाणम्, क्रियायाः करणसाध्यत्वात्, चक्षुरादिव्यापारे च तस्या अनुत्पादात् । पार्थिवत्वेऽपि रूपादिषु मध्ये गन्धस्येवाभिव्यञ्जकत्वं प्रमाणम्, कुङ्कुमगन्धाभिव्यञ्जकघृतवत् । यथा घृतं स्वगन्धसहितमेव कुङकुमगन्धमभिव्यनक्ति, तथा घ्राणमपि स्वगन्धसहितमेवेन्द्रियम्, अतो न स्वगन्धस्य ग्राहकम्, तेनव तस्याग्रहणात् । यथा घ्राणस्य तथा रसनचक्षुस्त्वगिन्द्रियाणामपि वक्ष्यमाणेन दृष्टान्तबलेन रूपरसस्पर्शसहकृतानामेवेन्द्रियत्वानुमानान्न स्वगुणग्रहणम्। श्रोत्रन्तु शब्दगुणमिन्द्रियम्, अतस्तेनैव शब्दोपलम्भः। सर्वथा विलक्षण है। इन विलक्षण कारणों से उत्पन्न होने के हेतु ही और पार्थिव द्रव्यों में गन्ध की व्यञ्जकता नहीं है, ब्राण में ही है । घ्राण इस इन्द्रिय का नाम है। इस नाम की व्युत्पत्ति से ही घ्राणेन्द्रिय की सत्ता में प्रमाण भी सूचित होता है । 'आत्मा जिघ्रत्यनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे आत्मा को गन्ध का प्रत्यक्ष हो वही 'प्राण' है। फलतः यह अनुमान निकला कि गन्ध ग्रहण रूप क्रिया का कोई करण है, क्योंकि वह भी क्रिया है, जैसे कि छेदनक्रिया । चक्षु प्रभृति और इन्द्रियों के व्यापार से गन्ध का ज्ञान नहीं होता है. तस्मात् चक्षुरादि इन्द्रियों से विलक्षण कोई इन्द्रिय अवश्य है, जिसका अन्वर्थ नाम 'घ्राण' है । घ्राण में पार्थिवत्व इस अनुमान प्रमाण से सिद्ध है कि घ्राणेन्द्रिय पार्थिव है, क्योंकि रूपादि वस्तुओं में से वह केवल गन्ध के ही प्रत्यक्ष का उत्पादक है, जैसे कि कुङ्कुम के गन्ध को अभिव्यक्त करानेवाला घृत । जिस प्रकार घृत अपने गन्ध के साथ ही कुकुम के गन्ध का अभिव्यञ्जक है, उसी प्रकार से घ्राण भी अपने गन्ध के साथ ही सभी गन्धों का अभिव्यञ्जक है। अतः घ्राण से स्वगत गन्ध का प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रत्यक्ष होनेवाले गन्ध से भिन्न दूसरे गन्ध से युक्त ध्राण से ही प्रत्यक्ष होता है, अतः स्वगत गन्ध से युक्त घ्राण से घ्राणगत गन्ध का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। इसी प्रकार आगे के दृष्टान्त से यह समझना चाहिए कि रस से युक्त रसना रूप से युक्त चक्षु एवं स्पर्श से युक्त त्वचा में ही इन्द्रियत्व अर्थात् रसादि प्रत्यक्ष का करणत्व है, अतः इन सबों से भी स्वगत रूपादि का प्रत्यक्ष नहीं होता है। श्रोत्र रूप इन्द्रिय का तो शब्द ही केवल विशेष गुण है, अतः उसीसे शब्द का प्रत्यक्ष होता है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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