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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली मध्येऽयोनिजं शरीरं शक्रशोणितमनपेक्ष्य जायते। केषामित्यत आह--देवर्षीणामिति। देवानाञ्च ऋषीणाञ्चेत्यर्थः । अन्वयव्यतिरेकावधारितकारणभावस्य शुक्रशोणितस्याभावे कथं शरीरस्योत्पत्तिरित्यत आह-धर्मविशेषसहितेभ्य इति । विशिष्यत इति विशेषः, धर्म एव विशेषो धर्मविशेषः, प्रकृष्टो धर्मः, तत्सहितेभ्योऽणुभ्य इति । अयमभिसन्धिः--शरीरारम्भे परमाणव एव कारणम्, न शुकशोणितसन्निपातः, नियाविभागादिन्यायेन तयोविनाशे सत्युत्पन्नपाकजः परमाणुभिरारम्भात् । न च शुक्रशोणितपरमाणूनां कश्चिद्विशेषः, पार्थिवत्वाविशेषात् । अत्रापि कार्ये जातिनियमस्यादृष्ट एव हेतुः, एवञ्चेद्धर्मविशेषानुगृहीतेभ्यः परमाणुभ्योऽयोनिजशरीरोत्पत्तिर्नानुपपन्ना । ननु दृष्टस्तावत् सर्वत्र शरीरोत्पत्तौ शुक्रशोणितयोः पूर्वकालतानियमः, तेन यथा ग्रावोन्मज्जनाभ्युपगमस्तत्सदृशग्रावान्तरनिमज्जन 'तत्र' अर्थात् योनिज और अयोनिज इन दोनों में अयोनिज शरीर अपनी उत्पत्ति में शुक्र एवं शोणित के मेल की अपेक्षा नहीं रखते । ये अयोनिज शरीर किनके हैं ? इस प्रश्न का समाधान 'देवर्षीणाम्' इत्यादि से देते हैं। अर्थात् देवताओं और ऋषियों के शरीर अयोनिज हैं। शुक्र और शोणित में शरीर की कारणता अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध है, फिर देवताओं और ऋषियों के शरीर बिना शुक्रशोणित के ही कैसे उत्पन्न होते हैं ? इसी आक्षेप का उत्तर 'धर्मविशेषसहितेभ्यः' इस वाक्य से दिया गया है। 'विशिष्यत इति विशेषः, धर्म एव विशेषो धर्मविशेषः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उत्कृष्ट धर्म ही इस 'धर्मविशेष' शब्द से इष्ट है। इसकी सहायता से परमाणु ही देवादि शरीरों को उत्पन्न करते हैं। अर्थात् उन शरीरों की उत्पत्ति परमाणुओं से ही होती हैं शुक्र और शोणित के मेल से नहीं। क्रियाविभागादिक्रम से' अर्थात् पहिले अवयवों में क्रिया उसके बाद अवयवों का विभाग, फिर आरम्भक संयोग का नाश, अनन्तर कार्य द्रव्य का नाश, इस क्रम से जब शुक्र और शोणित का परमाणु पर्यन्त विनाश हो जाता हैं, तब इन परमाणुओं में दूसरे रूप रसादि की उत्पत्ति होती है, एवं इन पाकज रुपरसादि गुणों से युक्त परमाणुओं से ही शरीर की उत्पत्ति होती है। शुक्र और शोणित के आरम्भक परमाणुओं में एवं अन्य पार्थिव परमाणुषों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों में पार्थिवत्व समान रुप से है। योनिज-शरीर स्थलों में भी किसी विशेष प्रकार के शक्रशोणित से किसी विशेष प्रकार के (द्रव्य रुप शरीर) की ही उत्पत्ति हो, इसमें अदृष्ट को ही (नियामक) कारण मानना पड़ता है। अगर ऐसी बात है तो फिर उत्कृष्ट धर्म से अनुगृहीत परमाणुओं के द्वारा अयोनिज शरीर की उत्पति में कोई अयुक्तता नहीं है। (प्र.) जिस प्रकार किसी पत्थर के तैरने को स्वीकार करना उसी तरह के दूसरे पत्थर के डूबने के बाधक प्रमाण के द्वारा असम्भव होता है, उसी प्रकार सर्वत्र For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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