SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६ न्यायकादलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् साधर्म्यवैधयं न्यायकन्दली निमित्तकारणत्वञ्च साधर्म्यम् । ननु दिक्कालौ सर्वेषामुत्पत्तिमतां निमित्तमिति कुत एतत् प्रत्येतव्यम् ? यदि सन्निधिमात्रेण ? आकाशस्यापि कारणत्वं स्यात्, अथ तव्यपदेशात् ? सोऽप्यनैकान्तिकः, गृहे जातो गोष्ठे जात इत्यनिमित्तेऽपि दर्शनात् । अत्रोच्यते-अस्ति तावत तन्त्वादिप्रतिनियमात पटाद्यत्पत्तिवद्देशविशेषनियमात कालविशेषनियमाच्च सर्वेषामुत्पत्तिः, यदि देशकालविशेषावपि न कारणम्, अत्र क्वचन हेतवः कार्य कुर्य्यरविशेषात् । सर्वदा सर्वत्र कारणाभावात् कार्यानुत्पत्तिरिति चेत् ? यत्र देशे काले च कारणानि भवन्ति, तत्र तेषां जनकत्वं नान्यत्रेत्यभ्युपगन्तव्यं विशिष्ट देशकालयोरङ्गत्वम, कार्य्यजननाय तयोः कारणैरपेक्षणीयत्वात् । इदमेव च देशस्य कालस्य च निमित्तत्वम्, यदेकत्र कार्योत्पत्तिरन्यत्रानुत्पत्तिरिति । नहीं हैं, किन्तु सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं का निमित्तकारणत्व भी इन दोनों का साधयं है । (प्र०) यह कैसे समझें कि दिशा और काल सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं के निमित्तकारण हैं ? अगर सभी वस्तुओं की उत्पत्ति के पहिले नियत रूप से रहने के कारण ही ये दोनों सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं के निमित्तकारण हैं, तो फिर आकाश में भी यह कारणता रहनी चाहिए । 'अभी घट की उत्पत्ति हुई है' या 'उस दिशा में पट की उत्पत्ति हुई है' इत्यादि व्यवहारों से भी काल और दिशा में निमित्तकारणता का मानना सम्भव नहीं है, क्योकि निमित्तकारणता के बिना भी 'घर में घट की उत्पत्ति हुई और गोष्ठ में पट की उत्पत्ति हुई' इस प्रकार के व्यवहारों की तरह उक्त व्यवहारों की उपपत्ति हो सकती है। (उ०) इस आक्षेप के उत्तर में कहना है कि जिस प्रकार पटादि कार्यों में यह नियम है कि वे तन्तु प्रभृति कारणों से ही उत्पन्न हों, उसी प्रकार सभी कार्यों की उत्पत्ति में देश और काल का भी नियम है। अगर ये दोनों अपेक्षित न हों तो फिर जहाँ-तहाँ विक्षि: कारणों से और भिन्नकालिककारणों से भी कार्यों की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि नियमित देश और नियमित काल के कारणों में और अनियत देश और अनियत काल के कारणों में स्वरूपतः (देश और काल के सम्बन्ध को छोड़कर) कोई अन्तर नहीं है। (१०) सभी देशों और सभी कालों में कारणों की सत्ता न रहने से ही सभी देशों और सभी कालों में कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है। (उ०) तो फिर यह मानना पड़ेगा कि जिस देश में और जिस काल में सम्मिलित होकर जो सब कारण कार्य को उत्पन्न कर सके, उसी काल में और उसी देश में वे कारण हैं और कालों में नहीं और देशों में नहीं, जाते हैं । संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, भावनाख्य संस्कार, धर्म और अधर्म ये चौदह गुण आत्मा के हैं। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy