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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् आकाशकालदिगात्मनां सर्वगतत्वं परममहत्वं सर्व संयोगि आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार द्रव्यों के सर्वगतत्व, परममहत्त्व, और सर्वसंयोगिसमानदेशत्व ( सभी संयोगी द्रव्यों का समान रूप से न्यायकन्दली Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ साधम्यवैधभ्यं परापरप्रत्ययाभावात् । एकस्यां दिश्यवस्थितयोः पिण्डयोस्तथा प्रत्यय इति चेत् ? अस्ति तर्हि संयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वाभ्यां विषयान्तरम्, विषयवैलक्षण्यमन्तरेण विलक्षणाया बुद्धेरनुत्पादात् । वेगोऽपि गुणान्तरम्, न क्रियासन्ततिमात्रम्, मन्दगतौ वेगप्रतीत्यभावात् । क्रियाक्षणानामाशूत्पादनिमित्तो वेगव्यवहार इति चेत् ? न, अलातचक्रादिषु क्रियाक्षणानां निरन्तरोत्पादव्ययवतां प्रत्येकमन्तरा - ग्रहणेनाशूत्पादस्य प्रत्यक्षेणाप्रतीतेः, वेगप्रत्ययस्य च भावात् । व्यक्ता च लोके क्रियावेगयोर्भेदावगतिः, वेगेन गच्छतीति प्रतीतेः । आकाशकालदिगात्मनां सर्वगतत्वमित्यादि । सर्वशब्देनात्र प्रकृतापेक्षयानन्तरोक्तानि मूर्त्तद्रव्याणि परामृश्यन्ते । सर्वगतत्वं सर्वैर्मूतैः सह संयोग में विद्यमान वस्तुओं में भी परत्व और अपरत्व का व्यवहार होना चाहिए, किन्तु देखनेवाले के शरीर से उनमें सामीप्य की बुद्धि होने पर भी (विरुद्ध) दिशाओं में अवस्थित उन दोनों वस्तुओं में परस्पर की अपेक्षा परत्व या अपरत्व की बुद्धि नहीं होती है । (प्र०) अगर इसी में इतना बढ़ा दें कि समान दिशा के देशों के संयोग के अल्पत्व और अधिकत्व ही (अपरत्व एवं परत्व) प्रतीतियों के नियामक हैं ? ( उ० ) तो भी परत्व और अपरत्व नाम का स्वतन्त्र गुण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि विषयों में अन्तर हुए बिना प्रतीतियों में अन्तर नहीं हो सकता । वेग भी स्वतन्त्र गुण है, क्रियाओं का समूह नहीं, क्योंकि मन्द गतिवाली वस्तुओं में वेग की प्रतीति नहीं होती हैं । ( प्र ० ) क्रिया के कारणीभूत क्षणों का यह स्वभाव है कि वे अत्यन्त शीघ्र विनष्ट होते हैं । उनकी इस अत्यन्त शीघ्र विनाशशीलता से ही वेग का व्यवहार होता है ( अतः क्रियाओं का समूह ही वेग है, कोई स्वतन्त्र गुण नहीं ) | ( उ० ) चूँकि अलातचक्रादि में होनेवाली क्रियाओं के कारणभूत क्षणों का बराबर उत्पाद और विनाश होता रहता है, किन्तु उत्पत्ति और विनाश की अत्यन्त शीघ्रता के कारण उन दोनों के बीच के समय गृहीत नहीं हो पाते, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है, किन्तु अलातचक्रादि में भी वेग की प्रतीति तो होती ही है । क्रिया और वेग की विभिन्न रीति से प्रतीति सर्वजन सिद्ध है । 'यह वेग से जा रहा है' इस आकार की वेग की प्रतीति होती है । (क्रियाओं की प्रतीति का यह आकार नहीं है ) । For Private And Personal प्रकृत भाष्य के 'सर्वगतत्व' पद में प्रयुक्त 'सर्व' शब्द से प्रकृत आकाशादि से ठीक पहिले कहे हुए सभी मूर्त्त द्रव्यों को समझना चाहिए। आकाशादि का सभी
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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