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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली छायेत्यभिमानः, तद्देशव्यापिनो नीलिम्नः प्रतीतेः, अभावपक्षे च भावधर्माध्यारोपोऽपि दुरुपपादः । तदुक्तम् न च भासामभावस्य तमस्त्वं वृद्धसम्मतम् । छायायाः कार्ण्यमित्येवं पुराणे भूगुणश्रुतेः ॥ दूरासन्न प्रदेशादि महदल्प - चलाचला देहानुर्वात्तनी छाया न वस्तुत्वाद्विना भवेत् ॥ इति । I Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५. दुरुपपादश्च क्वचिच्छायायां कृष्णसर्प भ्रमः, चलतिप्रत्ययोऽपि गच्छत्यावरकद्रव्ये यत्र यत्र तेजसोऽभावस्तत्र तत्र रूपोपलब्धिकृतः । एवं परत्वादयोऽप्यन्यथातत्र चालोकाभावव्यञ्जनीयरूपविशेषे सिद्धाः । तमस्यालोकानपेक्षस्यैव तो अन्धकार की प्रतीति है ? तम को अभाव रूप मान लेने से तो नील 'रूप' का आरोप कठिन होगा, क्योंकि 'रूप' भाव का धर्म है ( उसका आरोप भी अभाव नहीं हो सकता । ) जैसा कहा है कि – (१) तेज के अभाव में अन्धकार का व्यवहार वृद्धों से अनुमोदित नहीं है, क्योंकि पुराणों में कहा गया है कि छाया में पृथ्वी का कृष्ण वर्ण वर्तमान है । ( २ ) छाया को भावस्वरूप माने बिना छाया देह के साथ चलती है, छाया अभी बहुत दूर है, अब समीप आई, यह छाया बहुत बड़ी है, या यह बहुत छोटी है, यह अब चल रही है और वह अब खड़ी हो गयी, इन प्रतीतियों की उपपत्ति नहीं हो सकती । छाया में काले साँप का भ्रम तो बिलकुल ही असम्भव होगा । (प्र० ) अन्धकार को रूपविशेष मान लेने पर भी "अन्धकार चलता है", अन्धकार में गमन की यह प्रतीति अनुपपन्न ही रहेगी । ( उ० ) इसमें कोई अनुपपत्ति नहीं है । क्योंकि गमन को उक्त प्रतीति आलोक को ढँकनेवाले द्रव्य के चलने से जहाँ जहाँ तेज का अभाव हो जाता है, उन सभी जगहों में आरोपित रूप की उपलब्धि ही है । इसी प्रकार अन्धकार में प्रतीत होनेवाले परत्वादि गुणों की प्रतीति की उपपत्ति भी दूसरे प्रकार से की जा सकती है । ( प्र०) रूपों का प्रत्यक्ष आलोक में ही चक्षु से होता है, अन्धकार की प्रतीति आलोक के न रहने से ही चक्षु से होती है, अतः अन्धकार 'नीलरूप' नहीं है । ( उ० ) यह आपत्ति भी व्यर्थ है, क्योंकि वस्तुओं के स्वभाव के अनुसार ही कार्य्यकारणभाव की कल्पना की जाती है । अगर आलोक के न रहने से ही अन्धकार का प्रत्यक्ष चक्षु से होता है तो फिर और रूपों के प्रत्यक्ष में आलोकसहकृत चक्षु को (ही) कारण मानते हुए भी अन्धकारस्वरूप रूप के प्रत्यक्ष में आलोक से निरपेक्ष चक्षु को ही कारण मानना पड़ेगा । जैसे कि आप घटाभावादि के प्रत्यक्ष में आलोकसहकृत चक्षु को कारण For Private And Personal १. जैसे की चलते हुए मनुष्यादि के शरीर से या स्थावर वृक्षादि से भूतल के जो अंश सौर तेज क े संयोग से बच जाते हैं, उनमें ही 'छाया' की प्रतीति होती है । एवं शरीरादि आवरक द्रव्यों का परिमाण जितना होता है, उतने ही परिमाण के अनुसार वे देशों को आवृत करते हैं। तदनुसार ही अन्धकाररूप छाया की प्रतीतियाँ होती हैं । ४
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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