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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्र.सं. विमुखोकलापथपिलाकनिष्ठिके॥तर्जन्यौपस तेश्लिष्टेलिशवंगुष्ठ कौ नाथा॥मध्यमानामि के हौतु दोपक्षावि ३१४|| वतियत्।एषागरुडमुद्रास्या दशेषविषनाशिनि॥अथगरुडपंचाक्षरस्यफलमाहाभूतपिशाचपैयगरल रोगोन्मादज्वरापस्यतिग्रंथि छेदादिमे हो दराच॥पवनने त्रादिरोगापहां अयगरुउमंत्रप्रसंगात्कल्पांतरोतम कारेणआशुगरुडमन्त्रोपिलिख्यते।।शंकरऋषिःजगती छंदःआशुतायो हता। गंवीजंस्वाहाशक्तिःसर्व विषह रणेविनियोगः।गांगी मित्या पं गानि।घ्या नं।आजानोस्तप्त हेमप्रभमल हिमपरय माना भितस्मिन् आकंठं कुंकमा भमरकुलमिवश्याममामूलकेशं।। ब्रह्मांज्याप्त देहंहिभजमहि वरैर्भूषणेभूषितांगं ।पिंगा संती दणदंष्ट्रवर दम भयदंताटुननमामि ॥१॥ॐ श्रीश्रीगरुडायम हागरुडायसमस्तांडांउ बहिःस्लैलोक्यनायकाय नागशोणित्तदि ग्यांगायॐ पसिगजायविलुवाहनायसर्वससानसं हरमटरमईयरमोठयरलोट यर त्रोटयरभामयरमंचरा कर्षयरआग छआग आवेशयरसिद्धयरशी सुतरघरसमस्तभूतवेता लाना शयनाशयमर्वग्रहान्नाशयनाशय सर्वशत्रून्विनाशयरसर्वसानसं हरस्वाहा॥ इतिमन्त्रः॥षट्सप्तशतासरोयमंत्रः॥विषहरणभूतनी ग्रहप्रधा गमः नोयमन्त्रः। द्वादशसहसंजपः॥नागरुपविष्टेन तिललाजपायस एतगुडेश्वशतांशहोमः।। पूर्वोक्तवसूज|३१४ For Private And Personal
SR No.020571
Book TitlePrapanchasara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGiryanendra Saraswati
PublisherGiryanendra Saraswati
Publication Year
Total Pages755
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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